Monday, November 26, 2012

सुषम बेदी: चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे

रंग भेद मनुष्यता के नाम पसुषम बेदी: चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचेर एक बड़ा घिनौना और अक्षम्य अपराध है। आज के सभ्य समाज में भी यह अपराध खुलेआम जारी है। अमेरिका जैसे उन्नत देश में यह किसी न किसी रूप में अभी भी कायम है। वैसे तो १८६६ में ही अमेरिका में दास प्रथा समाप्त कर अश्वेत लोगों को नागरिकता प्रदान करने और वोट देने के अधिकार के लिए कानून बनाने का काम प्रारंभ हो गया था। मगर कानून बनाने से ही सामाजिक समानता और न्याय स्थापित नहीं हो जाता है। लोगों, श्वेत लोगों का नजरिया अश्वेतों के प्रति बदलने में बहुत समय लगा। एलेक्स हेली के उपन्यास ‘रूट्स’ और उस पर आधारित फ़िल्म (छ: भाग) में इसे देखा जा सकता है कि कैसे कानून बनने के बाद भी अत्याचार जारी रहा बल्कि उसमें षड़यंत्र और बेईमानी भी शामिल हो गई। १९५५ में रोजा पार्कर की जिद और मार्टिन लूथर किंग जूनियर के प्रयासों के फ़लस्वरूप काफ़ी बदलाव आया। (विस्तृत जानकारी के लिए विजय शर्मा की संवाद प्रकाशन से आई पुस्तक ‘अपनी धरती, अपना आकाश: नोबेल के मंच से’ को देखा जा सकता है) तमाम कानून बने। फ़िर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अश्वेत अमेरिकन को हेय दृष्टि से देखते हैं। यह भी सही है कि किसी पर अत्याचार करने के लिए उसे शारीरिक कष्ट देना ही एक मात्र तरीका नहीं है। शारीरिक कष्ट से ज्यादा चोट मानसिक अत्याचार द्वारा आघात दे कर पहुँचाया जा सकता है। अमेरिका में अश्वेतों पर शारीरिक अत्याचार रुक गए मगर उनके प्रति लोगों का नजरिया नहीं बदला है। उन्हें दूर रखने के, अवसर से वंचित रखने के बहुत सूक्ष्म तरीके अपनाए जाते हैं। आज भी बहुत सारे ऐसे लोग मिल जाएँगे जो पढ़े-लिखे हैं जिन्हें कानून का ज्ञान है मगर वे भेदभाव बरतते हैं। ऐसे लोग अश्वेतों को बेईमान, चोर और गैरभरोसेमन्द मानते हैं। खुद अपने और अपने लोगों तथा अपने समाज के लिए अश्वेत लोगों को खतरा मानते हैं। जितना हो सके उन्हें खुस से दूर रखने का प्रयास करते हैं। रंगभेद का यह सूक्ष्म रूप लोगों के व्यवहार और बातचीत में प्रकट होता है। ऐसे लोग अपनी शक्ति का उपयोग/दुरपयोग करके अश्वेत लोगों के अधिकार का हनन करते हैं। अश्वेत लोगों पर केवल श्वेत ही अविश्वास नहीं करते हैं। भूरी नस्ल अर्थात एशियाई नस्ल के लोग, जो स्वयं भी भेदभाव का शिकार होते रहते हैं, वे भी अश्वेत लोगों पर विश्वास नहीं करते हैं। ऐसे लोग अपने शोषण का रोना रोते हैं लेकिन दूसरों का शोषण करते समय यह भूल जाते हैं कि वे खुद भी वही अपराध कर रहे हैं। ये लोग मानव अधिकारों का हनन करते हैं। ऐसे लोगों को कानूनी तौर पर सजा मिलनी चाहिए। मगर सजा मिलती है अश्वेतों को। इन्हीं बातों को दर्शाती हुई एक कहानी प्रवासी हिन्दी कहानीकार सुषम बेदी ने लिखी है। प्रवासी हिन्दी कहानीकारों में अमेरिका में रह रही कहानीकार सुषम बेदी का नाम काफ़ी आदर के साथ लिया जाता है। सुषम बेदी की ‘अन्यथा’ में प्रकाशित कहानी ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’ प्रोफ़ेसर डोरा जॉनसन के मन में चल रही बातों को दिखाती है। मानवता के प्रति उसकी चिंता को दर्शाती है। एक साक्षात्कार में सुधा ओम ढ़ींगरा से बातचीत करते हुए सुषम बेदी कहती हैं, “मुझे मानवीय रिश्तों, रिश्तों के बीच व्यक्ति की अपनी पहचान, मानव मन की गुत्थियाँ, उलझनओं को समझने की, उनकी पड़ताल में गहरे उतरते चले जाने में हमेशा रूचि रही है। यही मेरे लेखन के मूल विषय हैं।” इस कहानी में भी वे मानवीय रिश्तों, मानव मन की गुत्थियों, उलझनों को समझने, उनकी पड़ताल करती नजर आती हैं। डोरा न्यूयॉर्क की एक यूनिवर्सिटी में एंथ्रोपोलॉजी पढ़ाती है। वह एक “उदारमना, संवेदनशील और लिबरल किस्म की महिला थी जो मानव अधिकारों के कई मुद्दों के लिए लड़ चुकी थी। इसी सिलसिले में वह अफ़्रीका और भारत पाकिस्तान की यात्रा भी कर चुकी थी। यूं भी भारत पाकिस्तान जैसे देशों से उसका एक तरह से पुश्तैनी संबंध था।” कहानी संकेत देती है कि अफ़्रीका और भारत-पाकिस्तान में मानव अधिकारों का हनन होता है। मगर यह विडम्बना है कि मानव अधिकारों के संरक्षण का पुरौधा बने अमेरिकी समाज में भी यह मनोवृति पाई जाती है। डोरा न केवल पढ़ाती है वरन पढ़े-पढ़ाए हुए को जीना भी चाहती है। कहानीकार उदारमना, संवेदनशील और लिबरल होना डोरा की विशेषताएँ बताती है। डोरा को लगता है, “उसे इंसानियत के बारे में सिर्फ़ पढ़ाना और लिखना ही नहीं, कुछ करने की भी जरूरत है।” डोरा के लिए कथनी और करनी में भेद नहीं है। वह जो सिद्धांत अपने छात्रों को सिखाती है उन्हें अपने जीवन में वास्तविक रूप में व्यहृत भी करती है। वह समाज के लिए भी कुछ करना चाहती है। मानव अधिकार के लिए लड़ना अपना फ़र्ज समझती है। दूसरे के अधिकारों की रक्षा करना उसे अपना कर्तव्य लगता है। समाज में व्याप्त भेदभाव उसे विचलित करते हैं। डोरा की यूनिवर्सिटी का कैम्पस एक ऊँचे भू-भाग पर बसा है। कहानी में ऊपर की चट्टान, ऊँचा भू-भाग रूपक है। यह सब देशों में सब स्थानों में होता है। अच्छी और ऊँची जमीन धनी-मानी और उच्च वर्ग के लोग हथिया लेते हैं। नीची भूमि गरीबों की बस्ती बनती है। “जैसा कि अक्सर शहरों में होता है अमीरों की बस्ती के आसपास ही झुग्गी झोपड़ियों का इकट्ठा होना शुरु हो जाता है। न्यूयॉर्क के इस हिस्से का विकास इस नजरिए से काफ़ी दिलचस्प और कुछ अपने ढ़ंग का ही है जिसमें हारलम और अभिजात वर्ग का एक उच्चतम शिक्षण संस्थान, दोनों की ही सीमाएँ शामिल हैं, दोनों ही एक साथ फ़ूलते फ़लते हैं।” निचले भू-भाग पर गरीबों अर्थात कालों की बस्ती है। दोनों रिहाइशों के बीच एक पार्क है। पार्क में जगह-जगह पर बनी सीढ़ियाँ ऊपर-नीचे आने-जाने के काम आती हैं। अधिकाँश अमीरों के मन में काले लोगों के प्रति अविश्वास है। उन्हें लगता है कि ये लोग चोर-उचक्के हैं और मौका लगते ही छिनतई करते हैं। जरूरत पड़ने पर हत्या भी कर सकते हैं। जब-जब कोई अप्रिय घटना घटती है, कैम्पस में प्रमुख स्थानों और दरवाजों पर सावधान की नोटिस लग जाती है। सब खूब चौकन्ने हो जाते हैं। कुछ दिन पहले एक प्रोफ़ेसर का बटुआ छिन गया था तो ऐसी ही सूचना चिपकी थी। जबकि सच्चाई यह थी कि प्रोफ़ेसर ने देखा नहीं था कि उनका बटुआ और थेले किसने छीने थे। मगर मान लिया गया था कि छिनतई का काम कालों के अलावा कोई और नहीं कर सकता है। डोरा भी दो-एक बार ऐसी अप्रिय वारदातों से परेशान हो चुकी है। फ़िर भी मनुष्यता पर से उसका विश्वास उठा नहीं है। यहाँ कहानी में एक दिलचस्प बात बताई गई है। चोरी भी खास मौसम में होती है और उसका खास कारण भी होता है। “ज्यादातर ये चोरी चकारी गर्मियों में होती थी क्योंकि सर्दियों में एक तो पेड़ नंगे हो जाते हैं सो परदा नहीं रहता है। दूसरे बर्फ़ गिरी होती तो भागने में भी न तेजी रहती है, गिरने का खतरा अलग। सो पुलिस तो बहुत जल्द काबू कर सकती है। गर्मियों में बाहर मौसम सुहावना होता है तो तफ़रीह के लिए बाहर निकलना ही होता है।” गर्मियाँ चोरी करने के लिए मौजू मौसम है कारण, “जब गर्मी लगती है तो खुराफ़ातों के लिए भी मन मचलता है और एक बार मन मौज में आ गया तो फ़िर जिस की भी शामत आ जाए!” जातीय श्रेष्ठता का नतीजा हम द्वितीय विश्वयुद्ध में देख-भोग चुके हैं। स्वयं को उच्च और दूसरों को निम्न और हेय मानने की प्रवृति आज भी कायम है। डोरा की बिल्डिंग में ही एक भारतीय महिला पद्मा रहती है। वह उच्च शिक्षा प्राप्त है और बॉयलॉजी पढ़ाती है। वह स्वयं को “गोरों जैसा ही समझती थी। उन्हीं से मिलती जुलती थी और खुद को उन्हीं के साथ जोड़ कर देखती थी।” और तो और गोरों का अपनापन हासिल करने क्रे लिए कालों के खिलाफ़ हो जाती। काले लोगों के प्रति उसके विचार में “इनका न तो कोई ठौर ठिकाना होता है, न कोई वैल्यूज। मां बाप खुद ड्रग्स और शराब में पड़े रहते हैं तो बच्चों को क्या सिखाएँगे।” पद्मा खुद सांवली है पर खुद को कालों से बहुत श्रेष्ठ समझती है। लेखिका ने दिखाया है कि प्रवासी भारतीय कई बार अपनों से मिलने में, उनसे संबंध रखने में हीनता मानता है और उनसे दूर रहने, खुद को उनसे श्रेष्ठ मानने दिखाने की चेष्टा करता है। अपनी हीन भावना छिपाने के लिए वह उन्हें पहचानने से इंकार करता है, गाहे बेगाहे उन्हें नीचा दिखाने से भी बाज नहीं आता है। (प्रवासी कहानीकार अचला शर्मा भी अपनी कहानी ‘रेसिस्ट’ में ऐसा ही दिखाती हैं।) पद्मा शिक्षित है और जीवविज्ञान पढ़ाती है। कम से कम उसे तो ज्ञात होना चाहिए कि काली या गोरी चमड़ी किसी को उच्च नस्ल या निम्न नस्ल का नहीं बनाती है। असल में उसके लिए शिक्षण मात्र एक जॉब है जिसका जीवन से कुछ लेना-देना नहीं है। यहाँ अपर्णा सेन की फ़िल्म ‘मिस्टर एंद मिसेज अय्यर’ की याद आती है। इस फ़िल्म में नायिका बहुत पढ़ी लिखी है मगर छूआछूत मानती है। सच डिग्री मिलने से ही आदमी शिक्षित नहीं हो जाता है। डिग्री और संस्कार दो अलग बातें हैं। एक दिन डोरा ने स्टोर से काफ़ी खरीददारी कर ली तो सामान उठाने के लिए उसे वहीं से एक काला लड़का मिल गया। चढ़ाई चढ़ते हुए रास्ते में वह उससे बातें करने लगी। वह लड़का उसे काफ़ी मेधावी और मेहनती लगा। बातचीत में पता चला कि वह पढ़-लिख कर आगे बढ़ कर अपनी गरीब स्थिति सुधारना चाहता है। उसकी माँ भी उसे आगे पढ़ाना चाहती है। लड़के की मासूमियत और जिज्ञासू प्रव्रुति डोरा को भा जाती है। जैस्सी में आगे बढ़ने की ललक को देखते हुए मानवता के नाते डोरा उसकी सहायता करना चाहती है। अपने घर की साप्ताहिक साफ़-सफ़ाई के लिए उसे काम देती है। वह खूब मेहनत और ईमानदारी से काम करता है। लेकिन पद्मा जैसे लोग यह सहन नहीं कर पाते हैं। उनके मन में भय है। उसे लगता है कि ये काले लड़के अवश्य उन लोगों को नुकसान पहुँचाएँगे। पद्मा पहले डोरा को समझाती है। डोरा उसे बताती है, “वह हाई स्कूल में पढ़ता है। बड़ा ईमानदार लड़का है। बहुत विनम्र, काम पसंद करने वाला और सभ्य।” कहानी में एक बात खटकती है जब लड़के का नाम पता चल गया उसके बाद भी उसे लड़का ही संबोधित किया जाता है। जबकि होना यह चाहिए था कि उसका नाम लिखा जाता। नाम से उसको संबोधित किया जाता। नाम व्यक्ति को पहचान देता है। व्यक्ति समूह अथवा जाति-नस्ल का प्रतिनिधित्व कर सकता है। पद्मा को लगता है कि डोरा सबके लिए मुसीबत खड़ी कर रही है। वह कहती है, “देखिए आप खुद को तो खतरे में डाल ही रही हैं, हम सबको भी खतरे से एक्सपोज़ कर रही हैं। कल को यहा किसी के घर में घुसकर चोरी करने लगा या किसी पर हमला कर दिया तो आप क्या कर लेंगी। पद्मा प्रोफ़ेसर के साथ हुई दुर्घटना का उदाहरण दे कर अपनी बात को सही साबित करना चाहती है। लेकिन जब देखती है कि डोरा पर उसकी बात का असर नहीं हो रहा है तो उस समय चली जाती है। मगर बाद में सोसायटी में शिकायत करती है। नतीजा होता है कि उस लड़के का कैम्पस में आना बंद कर दिया जाता है। डोरा को नोटिस मिलती है, “इमारत के रेजीडेंट्स की सुरक्षा हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। किसी अनजान व्यक्ति को इमारत में घुसने देना विपत्ति को आमंत्रित करना है। ऐसे किस्से आम देखे गए हैं कि किसी बहाने से अनपहचाने लोग इमारत के अंदर आ जाते हैं और रहने वालों की सुरक्षा पर सवाल लग जाता है। आपसे निवेदन किया जाता है कि आगे से किसी ऐसे व्यक्ति को इमारत में आने से रोकें।” उसकी शिकायत हो चुकी थी और फ़ैसला भी सुनाया जा चुका था। इस घटना से डोरा बहुत आहत होती है, सोचती है, “या तो सिर्फ़ चट्टान के ऊपर रहा जा सकता था, या चट्टान के नीचे। क्या निचले वाले ऊपर के जीवन के भागी कभी नहीं होंगे! या ऊपर वाले चट्टान के नीचे बह रहे जीवन के?” वह सदा सोचती कि इस स्थिति का कुछ इलाज होना चाहिए। अपरिचय भय उत्पन्न करता है, एक बार परिचय हो जाए तो भय दूर हो जाता है, संवेदना जाग्रत होती है। किसी के प्रति संवेदना होने के लिए उससे जान पहचान होना, उससे घुलना मिलना आवश्यक है। इसीलिए डोरा सोचती है, “डरते हैं लोग, जिनसे हमेशा हमले का खतरा रहता है, उनसे घुला मिला जाए, दोस्ती की जाए तो क्या फ़िर भी यही स्थिति रहेगी? अगर वे भी ऊँचे समाज की संपन्नता के भागीदार हो सकें तो क्यों नफ़रत करेंगे वे।” अभी सारे छोटे काम उनसे करवाए जाते हैं, “य़ूनिवर्सिती में भी सफ़ाई, सेक्योरिटी के सारे काम कालों ने ही संभाले हुए हैं...गोरे हों चाहे एशियाई, बढ़िया नौकरियाँ तो खुद हजम कर जाते हैं।” कहानीकार बौद्धिक जगत का कच्चा चिट्ठा खोलती है, “सारी एकैडेमिक दुनिया में गंदगी फ़ैलाई हुई है। दूसरों का गला घोंट कर अपनी नौकरी पक्की करते हैं।” हम स्वार्थ के कारण कितने नीचे गिर जाते हैं, दूसरों का हक छीनने में कोई संकोच नहीं करते हैं। डोरा की सोच भिन्न है। वह अन्याय को सहन नहीं करती है उसके विरुद्ध आवाज उठाती है। पूर्व में उसने ऐसा किया है, इस बार भी “वह खामोश नहीं बैठी रहेगी। कल ही यूनिवर्सिटी के प्रेसीडेंट को खत लिखकर विरोध करेगी।” “लिखने के माध्यम से ही जीवन के अर्थ तलाशती” सुषम बेदी ने जागरुकता पैदा वाली कहानी लिखी है। आज जब हम मानव अधिकारों की बातें करते हैं तो इसे कार्य रूप में परिणत करने की भी आवश्यकता है। सिर्फ़ नियम-कानून बनाने से कोई बदलाव नहीं आएगा। डोरा मात्र सिद्धांत में नहीं जीती है वह सिद्धांत को कार्यरूप में भी परिणत करती है तभी तो वह एक काले लड़के पर विश्वास करके उसे अपना काम सौंपती है। वह पद्मा जैसे लोगों की बेसिर पैर की बातों पर विश्वास नहीं करती है। कहानी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर गिरने के बाद लिखी गई है। अमेरिका की इस जुडवाँ इमारत पर हमला नफ़रत का फ़ल था। घृणा से घृणा फ़ैलती है। कहानी का परिवेश प्राकृतिक सुषमा से भरपूर है। इस स्थान का ऐतिहासिक महत्व भी है। “पार्क के साथ लगी यह सड़क तो लगभग ढ़ाई सौ साल पुरानी है। एक बहुत बड़ा चर्च भी बना है जो हमेशा बनता ही रहता है या कहिए कि आज तक संपूर्ण (यहाँ संपूर्ण शब्द का प्रयोग उचित नहीं है मात्र पूर्ण शब्द का उपयोग होना चाहिए था। वि. श.) नहीं हुआ।” पार्क का सौंदर्य देखें: “वसंत में उन की डालियों पर नन्ही नन्ही कोंपले खिल आती हैं और अलग अलग किस्म के फ़ूलों से लद जाते हैं पेड़। गर्मियों में हरी हरी पत्तियों से ढ़के खूब घनी छांव देते हैं, पतझड़ में पत्तों के रंग बदलते ही सारी सड़क रंगों की होली खेलने लगती है और सर्दियों में इनकी बेपर्द शाखाएँ बड़ी आकर्षक, लोचदार और लहरीली दीखती है। हवा में झूमती शाखाएँ जैसे संगीत की लहरोम को आकार दे रही होती हैं।” मगर मानवीय रिश्तों की खाई के कारण लोग इस ऐतिहासिक स्थान की प्राकृतिक सुषमा का पूरा आनंद नहीं उठा पाते हैं। अभिजात वर्ग और निचली बस्ती के बीच का पार्क काले लोगों के खतरे से न भरा हो तो भी वहाँ अन्य खतरे हैं। यह पार्क नशीली दवा बेचने वालों का अड्डा है। पुलिस भी वहाँ जाने से घबराती थी। स्थान असुरक्षित है अत: यूनिवर्सिटी का प्रेसिडेंट इस इलाके को छोड़ कर शहर के एक सुरक्षित इलाके में रहता है। कहानी दिखाती है कि यूनिवर्सिटी वास्तुकला का श्रेष्ठ नमूना है, “ग्रीक वास्तुकला के नमूनों से होड़ करती यूनिवर्सिटी की इमारतें, जहाँ बहुत शांति से अध्ययन अध्यापन का कार्य संपन्न होता। यहाँ के विद्यार्थी और प्रोफ़ेसर देश में बड़े बड़े ओहदों पर नियुक्त होते, विश्व में नोबुल पुरस्कार विजेता होते, बड़े बड़े बिजनसों के अधिकारी, संचालक निर्देशक होते और सारे देश की बागडोर संभालने वालों में से होते।” मगर अपने आसपास के लोगों से मेलमिलाप नहीं रख पाते हैं। यह विडंबना है कि इतनी शिक्षा के बावजूद लोगों में मानवीय भावनाओं की कमी है। ये विद्वतजन मनुष्य को मनुष्य नहीं समझ पाते हैं और मात्र रंग के आधार पर लोगों से भेदभाव बरतते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात की ओर कहानी इंगित करती है। अमेरिका में गोरों के द्वारा कालों पर कई सौ साल अत्याचार-अनाचार हुआ है। अगर इस समय-समाज में हुए लोमहर्षक अमानवीय कारनामों को जानना-समझना है तो नोबेल पुरस्कृत साहित्यकार टोनी मॉरीसन का सारा साहित्य पढ़ना चाहिए कम से कम उनकी एक किताब ‘बिलवड’ अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। एलेक्स हेली का जिक्र ऊपर हो चुका है। यह सारा अमानवीय व्यापार अश्वेतों की जातीय स्मृति में सुरक्षित है। “यह बरसों की गुलामी का इतिहास कब जाकर लोगों की स्मृति से मिटेगा!” इसके लिए समाज में और लोगों की सोच में आधारभूत परिवर्तन की जरूरत है। कहानी कामना करती है कि यह परिवर्तित हो जाए। कहानी प्रश्न भी पूछती है, “जिस विश्वास को बरसों के इतिहास ने खो दिया है, उसे अभी और कितने बरस लगने हैं खुद को जमाने में?” डोरा इस दूरी को कम करने के लिए कटिबद्ध है। कहानी ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’ की नायिका डोरा जॉनसन और कहानीकार के जीवन में कई साम्य हैं। डोरा यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है। आठ उपन्यास (हवन, लौटना’, नवभूम की रसकथा’, गाथा अमरबेल की’, कतरा-दर-करता’, इतर’, मोर्चे’, मैंने नाता तोड़ा’) और दो कहानी संग्रह (चिड़िया और चील तथा सड़क की लय) की रचनाकार सुषम बेदी भी १९७९ में अमेरिका आ गई और १९८५ से न्यूयॉर्क की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में पढ़ा रही थीं। कहानी का लोकेल न्यूयॉर्क है। सुषम बेदी भारतीय हैं और न्यूयॉर्क में रहती हैं। डोरा भी लड़कों को बताती है, “मैं वहाँ रहती थी। जब बहुत छोटी थी। बाद में रिसर्च के लिए गई थी।” सुषम बेदी ने भी पंजाब यूनिवर्सिटी से पीएच.डी. की है। लेखिका ने छोटी-छोटी घटनाओं और वार्तालाप के द्वारा कहानी बुनी है। आलोचक नामवर सिंह कहते हैं, “जब मैं सार्थकता की बात करता हूँ तो इसका यह अर्थ है कि कहानी हमारे जीवन की छोटी से छोटी घटना में भी अर्थ खोज लेती है या उसे अर्थ प्रदान कर देती है।” इस दृष्टि से ‘चट्टान के ऊपर, चट्टान के नीचे’ एक सार्थक कहानी है। संदर्भ: