Saturday, December 5, 2015

काव्य शास्र्व विनोदेन...

यह बात मैं पहले भी लिख चुकी हूँ कि साहित्य का चस्का बहुत बचपन से लग गया था। पढ़ना मेरे लिए एक शगल था, मनोरंजन था, पलायन था, खुद तथा आसपास के जीवन, लोगों को अंवेषण करने का जरिया था। साहित्य मेरे लिए दुनिया की सैर थी, जो थमने का नाम न ले। साहित्य मेरा ओढ़ना-बिछाना, खाना-पीना-सोना-जागना था। आज भी है। साहित्य साझापन माँगता है, चर्चा, विचार-विमर्श माँगता है। साहित्य परिवर्तन लाता है। मैं बदल रही थी। बड़ी जल्दी कहीं मैं खुद को सिमोन द बोउवार समझने लगी थी। बस तलाश थी एक ज्यॉ पॉल सार्त्र की, उसी के जैसे बुद्धिमान व्यक्ति की। आस-पास बहुत सारे लोग थे, बच्चे, जवान और बूढ़े भी मगर कोई सार्त्र न था। मैं किसी को सार्त्र मानने को राजी न थी, मेरी निगाह में उनमें से कोई उसके कैलीबर का न था। सार्त्र जिसमें तर्क का माद्दा हो, जो सुना सके तो सुनने को भी राजी हो, सुन भी सके। सार्त्र जो स्वतंत्र रहना चाहे और अपनी सिमोन को भी पूरी स्वतंत्रता से रहने दे। सार्त्र जिससे दुनिया के किसी भी विषय पर बात की जा सके। साहित्य के कारण मैं बदल रही थी, मेरी दुनिया बदल रही थी। साहित्य मुझे बता रहा था कि जो और जितना मैंने पढ़ा है, वह काफ़ी नहीं है, अभी और न जाने कितना और जानने को बाकी है। आज भी यह जानना शेष है और अब तो जीवन में जाल समेटने का वक्त आ पहुँचा है। साथ ही लगता है कि अभी बस शुरुआत हुई है। जीवन अथाह अर्थ लिए है और मैं तो बस किनारे पर ही रह गई, अभी तक डुबकी नहीं लगा सकी हूँ। उस समय तो जो भी पढ़ने को हाथ गलता उसे भकोस रही थी, जी, हाँ उसे भकोसना ही कहूँगी। क्योंकि तब मुझमें रुक कर जुगाली करते हुए पढ़े हुए को समझने-पचाने का न तो सलीका था और न ही मेरे पास धैर्य न था। बस जो हाथ लगता पढ़ती जाती। किताबें उन दिनों बहुत सस्ती हुआ करती थीं। यह ठीक है कि आज पैसे का मूल्य गिर गया है, फ़िर भी उन दिनों वे सस्ती थीं। एक-एक, दो-दो रुपए में उन दिनों सारा बाँग्ला, उर्दू, रूसी, अमेरिकन, इटैलियन साहित्य हिन्दी अनुवाद के रूप में उपलब्ध था। योजना का सदस्य बन कर पाँच-आठ रुपए में घर बैठे तीन-चार किताबें मँगाई जा सकती थीं, मँगवाई जाती थीं। इस योजना के लिए माताजी को पटा कर रखती थी, उनका हर हुक्म बजा लाती थी। जो किताबें आती वे सप्ताह भर में मैं चट कर जाती, बाकी के दिन अगली खेप का इंतजार करती और इस बीच कहीं-न-कहीं से और किताबों का भी इंतजाम कर लेती। कहीं का मतलब स्कूल-कॉलेज की लाइब्रेरी। पब्लिक लाइब्रेरी आस-पास न थी, न ही कोई किताबों का दीवाना आस-पास था। अब जब कोई किताब पढ़ता नहीं था तो किताब पर चर्चा क्या खाक करेगा। सो तलाश थी एक साथी की, वह भी सार्त्र जैसे साथी की। इस बीच लिखना शुरु हो चुका था। स्कूल मैगज़ीन में लिखा जा रहा था, हिन्दी विषय की परीक्षा के दौरान दूसरों के कोटेशन से अधिक अपने लिखे कोटेशन उत्तर में डाले जा रहे थे। इससे स्कूल में एक पहचान बन चुकी थी। ‘वही जो परीक्षा कॉपी में कोटेशन और कविताएँ लिखती है।’ लाइब्रेरियन पहचानती थी। एक बार कई वर्षों के बाद कॉलेज लाइब्रेरियन मिलीं, तो उन्होंने पहचान लिया और सबको बताया कि यह लड़की कैसे दिन-रात लाइब्रेरी में जमी रहती थी। कई लड़कियों के लाइब्रेरी कार्ड बटोर कर एक साथ कई किताबें ले जाती थी। वे मुझे लाइब्रेरी में ऊपर जा कर किताबें छूने और उलट-पुलट देखने और चुनने की आजादी देती थीं जो एक विशिष्ट बात थी, वरना पर्ची पर किताब का नाम लिख कर दो, किताब लो और दफ़ा हो जाओ, यही लाइब्रेरी का अलिखित नियम था। यह दीगर था कि बहुत लड़कियाँ लाइब्रेरी का रुख नहीं करती थीं। कॉपी में कविताएँ, शेरे लिखे जा रहे थे। कोटेशन लिखे जा रहे थे। डॉयरी निरंतर लिखी जा रही थी। लोकल अखबारों में एकाध रचना छप गई थी। फ़िल्मी पत्रिकाओं का निषेध था पर घर में धर्मयुग बिना नागा हर सप्ताह आता था, जिस पर पहला अधिकार मेरा हुआ करता था, मजाल है कोई मुझसे पहले छू ले, देख ले। धर्मयुग ने मेरी साहित्यतिक रूचि में इजाफ़ा किया। आज याद नहीं क्या लिखा था पर धर्मयुग से १५० रुपए का चेक आया। चेक क्रॉस था और उन दिनों बच्चों (कॉलेज जाने वालों को भी तब बच्चा ही माना जाता था) का बैंक एकाउंट नही होता था। अब क्या हो? सो पाँच रुपए में नया बैंक अकाउंट खोला गया और चेक जमा किया गया। अरे वाह! पासबुक, चेक बुक मिल गई। कॉपी में अपना लिखा जा रहा था, दूसरों के लिखे सुंदर अंश उतारे जा रहे थे, फ़िल्मी गीत भी उनमें हुआ करते। फ़िल्मी गीत साहित्य का अंग हैं। एक बार रात भर कवि सम्मेलन चला, रात भर मैं मन पसंद पंक्तियाँ अपनी कॉपी में टीपटी रही। यह सब होता था बड़ों यानी पिताजी से छिपा कर। इंजीनियर पिताजी के लिए विज्ञान के अलावा कोई अन्य विषय पढ़ने योग्य न था। यह एक मजेदार बात है कि वे खुद इंग्लिश और कभी-कभी हिन्दी साहित्य पढ़ते थे। उनकी एक छोटी-सी लाइब्रेरी थी और उनसे छिपा कर उसकी सारी हिन्दी किताबें मैं चट कर चुकी थी। लेकिन जब उन्हें पता चला कि उनकी बेटी पढ़ाई के नाम पर साहित्य की राह पर है तो खूब डाँट पड़ी। पता नहीं कैसे उनके हाथ मेरी डायरी और कॉपी पड़ गई। उसे दिखा कर उन्होंने खूब उपदेश दिए, विज्ञान पढ़ने के फ़ायदे और साहित्य के नुकसान गिनाए। लंबा व्याख्यान देने के बाद ताकीद की कि इसके बाद यदि कभी उन्होंने मुझे कोर्स और विज्ञान के अलावा कुछ और पढ़ते देखा तो मेरी खैर नहीं। खैर नहीं का मतलब मेरी पढ़ाई बंद। घर वालों यानी माताजी और पिताजी के हाथ में यह तुरुप का पत्ता था। जब-तब धमकी मिलती कल से पढ़ाई बंद। मैं सब करने को तैयार थी मगर पढ़ाई छोड़ने को नहीं। गुस्से में उन्होंने एक बात और कही अगर सब लिखने लगे तो हो गया दुनिया का बेड़ा पार। दुनिया का बेड़ा पार करने के लिए तो मैं नहीं लिख रही थी, इसके लिए अभी भी नहीं लिखती हूँ। पिताजी ने मेरा लिखा पढ़ा, मेरी डॉयरी पढ़ी (तब तक मेरे लिए मेरा लिखा मेरा बहुत निजी मामला था, गोपनीय और नितांत अपना), यह मेरे लिए बहुत अपमान की बात थी। नजीजा हुआ, अपना सारा लिखा हुआ छत पर ले जा कर उसकी होली जलाना। रोती जाऊँ, पन्ने फ़ाड़-फ़ाड़ कर आग के हवाले करती जाऊँ। सब जला डाला। कुछ दिन मातम मनाती रही, कुछ नहीं लिखा। फ़िर भीतर फ़ड़फ़ड़ाहट होने लगी, तमाम विचार कागज पर उतरने को छटपटाने लगे। भूख न लगे, नींद न आए। न लिखने की कसम खाई थी पर लिखने का पागलपन पीछा नहीं छोड़ रहा था। कसम बहुत दिन न टिक सकी और एक दिन फ़िर कागज-कलम ले कर बैठी और कागज काले करने लगी। लिखने के बाद खूब रोई। क्यों? पता नहीं। प्रण न निभा पाने की मजबूरी, लिखने की खुशी, लिखने पर लगे अनावश्यक प्रतिबंध को तोड़ने का दु:ख। पता नहीं क्या था, पर मैं कई दिन खूब रोई। कई वर्षों बाद जब दीमक लगने के कारण एक अलमारी भर किताबें नष्ट करनी पड़ीं तब भी खूब रोई थी। हाँ, तो मैं तलाश में थी एक अदद सार्त्र की। अंतत: सार्त्र से मिलना हुआ। मगर इसमें मेरी तलाश का कोई हाथ न था। कहते हैं न बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख। तो मुझे बिन माँगे मोती मिल गया। बिना तराशा हुआ, बिना बिंधा हुआ मोती। दुनियादारी से दूर किताबों की दुनिया में रमा हुआ। हम दोनों को टीचिंग का चस्का भी एक जैसा। मुझ सिमोन को मेरा सार्त्र मिल गया। हाय रे मेरी किस्मत! सार्त्र मिला पर उसे हिन्दी न आती थी, मलयालम, संस्कृत, इंग्लिश आती थी। मलयालम, संस्कृत मेरे लिए काला अक्षर, भैंस बराबर। इंग्लिश पढ़ना-लिखना आता था, मगर यहाँ तो बोलना था। और इंग्लिश बोलने में मेरी जबान को काठ मार जाता था। अब बात कैसे हो, साहित्य चर्चा कैसे हो? मगर जहाँ चाह, वहाँ राह। मैंने इंग्लिश बोलनी सीखी और उन्होंने हिन्दी सीखी और बस अपनी तो चल पड़ी। मैं शादी किए बिना सिमोन की तरह रहना चाहती थी। मगर यह फ़्रांस न था, हम फ़्रेंच न थे। यह भारत था और हम भारतीय थे। इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि एक उत्तर भारतीय और दूसरा सुदूर दक्षिण से आया था। गॉड्स ओन कंट्री से यानी केरल से। हमारे संस्कार, हमारी संस्कृति भारतीय है। भारतीय समाज में आज से ३५-३६ साल पहले बिना विवाह किए छोटे शहरों में रहने का चलन न था। असल में आज भी नहीं है। हमारे परिवारों को यह रिश्ता पसंद था। अत: हमने विवाह किया, बिना बाजा और बारात के, बड़ों के आशीर्वाद से। अब मेरे पास सार्त्र है जिससे दुनिया-जहान के किसी भी विषय पर मैं बात कर सकती हूँ। जब मैं बोलती हूँ तो वह सुनता है, जब वो बोलता है, मैं सुनती हूँ। जो स्वतंत्र रहना चाहता है और जो दूसरों की स्वतंत्रता की कद्र करता है। जो खुद खूब लिखता-पढ़ता और पढ़ाता और मुझे लिखने-पढ़ने-पढ़ाने की भरपूर छूट देता है। जब मैं लिख रही होती हूँ तो बिना मुझे डिस्टर्ब किए चाय की प्याली, कभी-कभी खाने की थाली मेरे पास रख देता है। यदि अंधेरा होने लगता है तो चुपचाप आ कर लाइट ऑन कर देता है। चूँकि सत्य की खूब सुबह उठने और रात जल्दी सोने की आदत है और मैं रात देर से सोती हूँ। अत: जब सुबह उठती हूँ तो मेरे लिए शहद डला नींबू-पानी तैयार रहता है। सुबह की इतनी अच्छी शुरुआत! सत्य ने मुझे विश्व साहित्य से परिचित कराया। हरमन हेस, गुंटर ग्रास, मोलियर, लोर्का, लुई पिरांडलो से परिचित कराया। तकषि, ओ.वी.विजयन, कुरुप से परिचित कराया। कालीदास, भवभूति से परिचित कराया। वाल्मिकी की रामायण से परिचित कराया, व्यास के महाभारत के पात्रों से रू-ब-रू कराया। मैंने सत्य को प्रसाद, पंत, निराला, नामवर, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, मन्नू भंडारी, निर्मला जैन, निर्मल वर्मा से परिचित कराया। प्रेमचंद, यशपाल, शरत, रवींद्र से वे पहले से मलयालम अनुवाद द्वारा परिचित थे। मैंने जीवन में बहुत सारी रूढ़ियों को तोड़ा है। मगर मैं चोली जला, बेलन उठा वाली नारीवादी नहीं हूँ। हाँ, सत्य का लेखन नारीवादी है। वे नारी का सम्मान करना जानते हैं। उन्होंने खुद ढ़ेर सारी रूढ़ियाँ तोड़ी हैं। हमने मिल कर एक नई परम्परा डाली है। इन ३५ सालों में दुनिया बदली है, हम बदले हैं। सत्य जिसे हिन्दी फ़िल्मों, कॉमेडी से सख्त चिढ़ थी, अब हिन्दी कॉमेडी फ़िल्मों से अपना मनोरंजन करते हैं। यह दीगर है कि तमाम हिन्दी फ़िल्में मलयालम फ़िल्मों का रीमेक होती हैं। अब वे धड़ल्ले से मुहावरेदार हिन्दी बोलते हैं। मैं विदेशी साहित्य और विदेशी फ़िल्मों की दीवानी हूँ। घर में किताबों-साहित्य के लिए खास स्थान है। लिखने का सिलसिला जारी है। यह भी सच है, हर बार प्रकाशित होने पर लगता है, इससे और अधिक अच्छा लिख सकती थी, लिखना चाहिए था। साहित्य ने मुझे मान-सम्मान दिया है। पाठक दिए हैं। नेट से जुड़े हुए दुनिया भर में फ़ैले हुए मेरे बहुत सारे साहित्यिक मित्र हैं। इस बीच हमारे घर में एक फ़ूल खिला है, एक सदस्य आया है। इस सदस्य ने किताबों के बीच आँखें खोलीं सो उसे भी लिखने-पढ़ने की लत है, अभी उसने पढ़ाना शुरु नहीं किया है। पता नहीं इस लाइन में जाएगी या नहीं लेकिन किताबों की कद्र करना उसे घुट्टी में मिला है। अब वह इतनी बड़ी और समझदार है कि उससे साहित्य चर्चा की जा सकती है। जिंदगी ने मुझे बहुत दिया है। अपनी ओर से थोड़ा-बहुत जोड़ कर मैं हिन्दी साहित्य को विरासत में दे जाऊँगी। यही कामना है। आमीन! ०००