Monday, April 13, 2020

विलियम वेल्स ब्राउन: ‘क्लोटेल’ प्रेसीडेंट की बेटी

“...विशिष्ट निजी गुणों वाली बहुत सारी मोलाटो लड़कियाँ होंगी: उनमें से दो अति उत्तम। कोई जेंटलमैन या लेडी खरीदना चाहें तो वे उपरोक्त गुलामों को एक सप्ताह के ट्रायल के लिए ले सकते हैं...।” – विलियम वेल्स ब्राउन ‘क्लोटेल’ विलियम वेल्स ब्राउन एक गुलाम के रूप में 1814 में कैन्टकी में पैदा हुआ था। उसकी माँ गुलाम थी और उसका पिता एक श्वेत व्यक्ति, गुलामों का मालिक था। उसके अंदर शुरु से खुद्दारी थी। उसके साथ एक गुलाम की भाँति किया गया व्यवहार उसे सदैव उकसाता कि वह अपनी स्वतंत्रता के लिए कुछ करे। क्या कर सकता था वह? उन दिनों एक गुलाम के पास कौन-सी ऐसी शक्ति थी कि वह अपनी अस्मिता, अपनी स्वतंत्रता के लिए कुछ उपाय कर सके। उस समय गुलाम पूर्ण रूप से शक्तिहीन, दमित और शोषित हुआ करते थे। इसके बावजूद कुछ लोगों का ज़मीर उन्हें ऐसी गलीज जिंदगी से निज़ात पाने के लिए सदा उकसाता रहता। वे इस अमानवीय स्थिति से निकल भागने के लिए कसमसाते रहते। विलियम बराबर सोचता क्या वह स्वार्थी बन जाए, केवल अपनी स्वतंत्रता की चिंता करे। अपने परिवार को छोड़ दे? नहीं वह अकेले स्वतंत्र नहीं होना चाहता था। अपनी माँ-बहन की स्वतंत्रता भी उसके लिए उतनी ही मायने रखती थी जितनी उसकी खुद की स्वतंत्रता। 1833 में उसने अपनी माँ के साथ मिल कर गुलामी से निकल भागने की योजना बनाई। मगर सफ़ल नहीं हुआ। उन दिनों किसी गुलाम के भागने का प्रयास भयंकर अपरध था। इस अपराध की सजा के तौर पर उसकी माँ को काम करने धुर दक्षिण में दूसरी जगह भेज दिया गया। स्वतंत्रता का उसका स्वप्न टूट गया। काफ़ी समय तक वह दोबारा निकल भागने की बात से बचता रहा। मगर स्वतंत्रता की इच्छा बलवती थी, एक बार विलियम ने फ़िर कोशिश की। इसके पहले कि वह भागता, मालिक का भतीजा प्लांटेशन पर रहने आया। संयोग से उसका नाम भी विलियम था अत: गुलाम विलियम से उसका नाम छीन लिया गया। नाम छिनने का मतलब है व्यक्ति का अस्तित्व समाप्त हो जाना। अब उसे न केवल अपनी स्वतंत्रता पानी थी बल्कि अपना नाम भी वापस पाना था। यह उसके अस्तित्व का संकट था। इसले लिए उसे बहुत संघर्ष करना पड़ा विलियम भले ही शुरु में पढ़ा-लिखा नहीं था पर वह बड़ा बुद्धिमान था। उस समय गुलामों का पढ़ना-लिखना कानूनन जुर्म था। विलियम गुलाम-प्रथा को गलत और अमानवीय मानता था। इतना ही नहीं वह खुल कर इस प्रथा की आलोचना करता था। उसने एफ़्रो-अमेरिकन स्वतंत्रता के लिए खूब संघर्ष किया। भाषण दिए, किताबें लिखीं और अन्य लोगों को पढ़ाया। मगर यह सब वह तब कर सका जब भाग कर वह दक्षिण अमेरिका की गुलामी से दूर गया। उसने अपनी मेहनत और कुछ लोगों के सहयोग से लिखना-पढ़ना सीखा। वह एक कुशल वक्ता था, अपने निर्भीक भाषणों के कारण वह गृहयुद्ध के पूर्व एक चर्चित व्यक्ति बन गया। जो लोग अमेरिका के स्वतंत्रता, भाईचारे और न्याय के सिद्धांतों की थोथी बातें करते, उनका वह कटु आलोचक था। अमेरिकी राष्ट्रपति (1801-1809) थॉमस जेफ़रसन का वह कटु आलोचक था। व्यक्ति को बहुत सोच-समझ कर बोलना चाहिए। जिन लोगों का बहुत सम्मान होता है, जिन्हें बहुत संवेदनशील, बुद्धिमान और जानकार माना जाता है वे भी कभी-कभी इतनी निचली स्तर की बात कह देते हैं कि उनकी अक्ल पर शक होने लगता है। कुछ लोग पहले मानते थे और आज भी कुछ लोग मानते हैं कि अश्वेत लोग मानसिक-बौद्धिक रूप से कमतर होते हैं अत: गुलाम बनने के ही योग्य होते हैं। ऐसे लोगों ने, जिनमें थॉमस जेफ़रसन भी थे, जिसने आगे चल कर फ़िलिस वीटले की आलोचना करते हुए कहा कि उसकी कविताओं का स्तर बहुत नीचा था। मिथकों का उसे ठीक से ज्ञान नहीं था। वे उसके कवि होने पर ही प्रश्न खड़ा करते हैं। सोचना होगा क्या सारी कविताएँ एक ही मानदंड से नापी जानी चाहिए? वीटले का लैटिन ज्ञान कमजोर हो सकता है, तो क्या उसे कविताएँ लिखने, खुद को अभिव्यक्त करने का अधिकार नहीं है? जेफ़रसन की दुमुँही राजनीति, उसकी कथनी और करनी के अंतर पर विलियम खुल कर बोलता। उसने इसी बात को अपने उपन्यास ‘क्लोटेल’ में दिखाया है। इस उपन्यास को ‘द प्रेसीडेंट्स डॉटर’ के नाम से भी जाना जाता है, यह किसी एफ़्रो-अमेरिकन द्वारा लिखा गया पहला उपन्यास है। प्रकाशन के पहले साल में इसकी 11,000 प्रतियाँ बिक गई। यह उस साल (1840) का बेस्टसेलर था। इसके अलावा विलियम ने 1847 में ‘नरेटिव ऑफ़ विलियम ड्ब्ल्यू. ब्राउन, ए फ़ूजिटिव स्लेव, रिटन बाई हिमसेल्फ़’ नाम से अपनी कहानी भी लिखी। 1853 में ‘ए नरेटिव्स ऑफ़ स्लेव लाइफ़ इन दि यूनाइटेड स्टेट्स’ और 1863 में ‘द ब्लैक मैन: हिज एंटेसेडेंट्स, हिज जीनियस, एंड हिज एचीवमेंट्स’, ‘द निग्रो इन दि अमेरिकन रेबेलियन’ आदि उसके अन्य कार्य हैं। ब्राउन के गुलामी से निकल भागने के बाद 1850 में फ़्यूजिटिव स्लेव कानून के साथ में अमेरिकी गुलामों की इंग्लैंड शरण लेने में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। गुलामों के जीवन को दुनिया के सामने लाने का अभूतपूर्व कार्य उसने किया। इसमें विलियम अकेला नहीं था। फ़्रेडरिक डगलस और विलियम वेल्स ब्राउन दोनों गुलाम जीवन को दुनिया के सामने लाने के लिए प्रसिद्ध हैं, दोनों ने 1840 के अंतिम दौर में इंग्लैंड की यात्रा की जहाँ उत्साह और जोश के साथ उनका स्वागत हुआ। एक सूचना के अनुसार ब्राउन ने पाँच साल के भीतर करीब एक हजार भाषण दिए और बीस हजार मील की यात्रा की। ब्राउन के उपन्यास से युक्ति लेते हुए कई गुलामों ने छद्म वेश में भागने का काम किया और सफ़लता पाई। एलेन क्राफ़्ट ने ऐसा ही किया। उसने खुद को अश्वेत स्त्री के रूप में दिखाया। कई गुलाम श्वेत रक्त मिश्रण के कारण हल्के रंग के होते और आसानी से श्वेत लोगों के बीच घुल-मिल सकते थे। स्वयं ब्राउन का रंग काफ़ी साफ़ था। इसलिए जब वह गुलामों की दशा का चित्रण करता तो कुछ लोग उसकी आलोचना भी करते थे। कुछ लोग कहते कि यह उसके श्वेत रक्त का प्रभाव है, इसीलिए उसके मन में अश्वेत गुलामों के प्रति दया-सहानुभूति का भाव है। दया-ममता जैसे मानवीय गुण अश्वेतों में कैसे हो सकते हैं। एलेन क्राफ़्ट ने एक अन्य विलियम के साथ भाग कर 1851 में लीवरपूल में शरण ली और विलियम वेल्स ब्राउन के साथ इंग्लैंड और स्कॉटलैंड का दौरा किया। इन लोगों ने 1851 के ग्रेट एक्जीबिशन में जा कर अमेरिका में गुलामों की स्थिति की ओर पर्यटकों तथा अन्य लोगों का ध्यान आकर्षित किया। एक अच्छी बात हुई, ब्रिटिश पत्र-पत्रिकाओं ने इनकी बातों को प्रमुखता से प्रकाशित किया। ब्राउन ने अपने यात्रा वृतांत ‘थ्री ईयर्स इन यूरोप, ओर, प्लेसेस आई हैव सीन एंड पीपुल आई हैव मेट’ में लिखा है कि वह भागते समय हैरिएट मार्टिनियू के यहाँ रहा। उसके अनुसार वह विटिंगटन क्लब का ऑनरेरी सदस्य चुना गया जिसमें करीब 2,000 सदस्य थे। इस क्लब में लॉर्ड ब्रौहम, चार्ल्स डिकेंस, रेरॉल्ड मार्टिन थाकरे जैसे कई नामी-गिरामी लोग शामिल थे। गुलामी विरोध (एन्टीस्लेवरी) के लिए किया गया उसका प्रयास ऐतिहासिक है। उसने न केवल उपन्यास, कविताएँ, यात्रा विवरण, आलेख लिखे, भाषण दिए वरन गुलामों का इतिहास जानने के लिए भी उसका लेखन प्रमुख स्रोत बना। उसके प्रयास के चलते इंग्लैंड और अमेरिका दोनों स्थानों पर गुलामों के प्रति लोगों का नजरिया बदला। लोग उनकी सहायता को आगे आने लगे। जिंदगी के पहले बीस साल, घर और खेत पर एक गुलाम की तरह जीवन बिताने वाले ब्राउन को जीवन का कटु अनुभव था। इस समय उसने कई अन्य कार्य जैसे प्रिंटर का सहायक, मेडिकल ऑफ़िस में सहायक के रूप में भी काम किया। ये अनुभव आगे चल कर उसके जीवन की पूँजी बने। उसने जेम्स वॉकर नामक गुलाम व्यापारी के सहायक का काम किया और कई बार सेंट लुई से मिसीसिपी नदी तक की यात्रा की। अंतत: 1834 में वह न्यू ईयर डे को गुलामी से भाग निकला। ये सारे अनुभव उसके लेखन में सहायक हुए। ओहायो में एक व्यक्ति बेल ब्राउन ने उसकी केनडा जाने में सहायता की, उसे शरण दी, खाना-पीना और सुरक्षा दी। इसी ओहाओ क्वेकर से उसने अपना बीच का और अंतिम नाम ग्रहण किया लेकिन पहला नाम अपना खुद का ही रखा। इस तरह उसने अपनी स्वतंत्रता और अपना नाम दोनों कमाया। स्वतंत्र होने के बाद भी उसके मन में कचोट थी। वह अपनी बहन की गुलाम के रूप में लगाई गई बोली और बिक्री को कभी न भूल सका। शायद ‘क्लोटेल’ का गुलाम नीलामी का दृश्य उसी स्मृति की आवृति है। ब्राउन ने कई साल लेक एरिक पर स्टीमबोट चलाई और न्यू यॉर्क के बफ़ैलो में अंडरग्राउंड रेलरोड में कंडक्टर के रूप में भी संबद्ध रहा। 1843 में उसने वेस्टर्न न्यू यॉर्क एन्टीस्लेवरी सोसाइटी से जुड़ कर अपनी प्रसिद्ध आत्मकथा ‘नरेटिव ऑफ़ विलियम ड्ब्क्यू ब्राउन, ए फ़्यूजिटिव स्लेव, रिटन बाई हिमसेल्फ़’ लिखी जिसके 1850 से पहले चार अमेरिकन और पाँच ब्रिटिश संस्करण निकले। बाद में उसने अपनी एक और आत्मकथा ‘माई सदर्न होम, ओर द साउथ एंड इट्स पीपुल’ नाम से लिखी। विलियम वेल्स ब्राउन विश्वविख्यात हो गया। वह अपनी बात कहने पेरिस में हुए अंतरराष्ट्रीय शांति सम्मेलन में भी गया। 1853 में उसका प्रसिद्ध उपन्यास ‘क्लोटेल’ आया, इसके एक साल बाद वह अमेरिका लौट आया और अपने लेखन में जुट गया। ब्राउन के नाम के साथ एक और प्रथम जुड़ा हुआ है। ‘द इस्केप, ओर ए लीप फ़ॉर फ़्रीडम’ किसी एफ़्रो-अमेरिकन द्वारा लिखा गया प्रथम नाटक है। बाद में उसने ‘क्लोटेल’ नाम से के कई अलग-अलग लेखन किए। ‘क्लोटेल मिराल्डा’, ‘ओर द ब्यूटीफ़ुल क्वाड्रून’, ‘‘क्लोटेल: ए टेल ऑफ़ द सदर्न स्टेट्स’, ‘क्लोटेल, ओर द कलर्ड हिरोइन’ उसके इस शृंखला के अन्य कार्य हैं। उस समय के अफ़्रो-अमेरिकन लोग देख रहे थे कि अखबार, मैगजींस और किताबों में उन्हें मनुष्य के रूप में चित्रित नहीं किया जा रहा है। अत: उसने अपने लेखन में अपनी नस्ल के लोगों को प्रमुखता से चित्रित किया। यह साहित्य उस समय के प्रचलित अमेरिकी साहित्य से भिन्न था। इसके मूल्यांकन का कोई पैमाना तब उपलब्ध न था। मगर इन अश्वेत लेखकों के ईमानदार लेखन से दुनिया को इनकी वास्तविक स्थिति की जानकारी मिली। विलियम ने बेबाक लिखा। भागते समय के अपने दुर्दांत अनुभवों को उसने सच्चाई के साथ बयान किया। गुलामी से भागते समय उसे छिप कर मौसम की मार का सामना करते हुए भूखे रहना पड़ा और चोरी से अपना पेट भरना पड़ा। जब उसे भुट्टे मिल गए तो उसने चोरी की परवाह न करते हुए उनसे अपनी भूख मिटाई। अमेरिका का तीसरा प्रेशीडेंट थॉमस जेफ़रसन 1797 से 1801 तह वाइस प्रेशीडेंट था और 1801 से1809 तक प्रेशीडेंट। थॉमस जेफ़रसन एक ओर तो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की बात करता दूसरी ओर खुद गुलाम पालता था। जेफ़रसन को क्रांतिदूत, महान और न जाने किस-किस विशेषण से नवाजा जाता है, लेकिन उसके मन में अश्वेतों को इस सारी योजना में शामिल करने का ख्याल स्वप्न में भी नहीं था। ब्राउन के मन में उसके प्रति कोई श्रद्धा न थी बल्कि वह उसकी असलियत उजागर करना चाहता था और इसीलिए उसने अपना प्रसिद्ध उपन्यास ‘क्लोटेल’ लिखा। उसने 1847 में एंटीस्लेवरी की एक मीटिंग में कहा कि यदि यूनाइटेड स्टेट्स स्वतंत्रता का पालना है तो उसने बच्चों को मौत का झूला दिया है। उस समय बहुत सारे लोगों के गले यह बात नहीं उतर रही थी कि कोई अश्वेत इतने तार्कित तरीके से सोच सकता है। उसके विरोधी उसकी प्रतिभा का श्रेय उसके श्वेत रक्त को देते थे। कैसी विडम्बना है कि बुद्धि को नस्ल से जोड़ कर देखा जाता है। अपने उपन्यास ‘क्लोटेल’ में ब्राउन दिखाता है कि करेर नाम की एक अश्वेत गुलाम जेफ़रसन की रखैल है, जिससे उसके बच्चे भी हैं। श्वेत रक्त के मिश्रण से उत्पन्न अश्वेत बच्चे अमेरिका में मुलाटो कहलाते हैं। विडंबना यह थी कि मुलाटो बच्चों की जिम्मेदारी उनका श्वेत पिता नहीं लेता था। वे बच्चे अपनी अश्वेत माँ का दायित्व होते थे, बच्चों का भाग्य अश्वेत गुलाम माँ से जुड़ा होता था। मुलाटो स्त्रियाँ अपने सौंदर्य के लिए जानी जाती हैं, इनका ऊँचा से-ऊँचा दाम लगता है। अमेरिका के दक्षिण में यह प्रथा जोरों से प्रचलित थी। अमेरिका के उत्तर के लोगों का ध्यान इस कुप्रथा की ओर ब्राउन जैसे अश्वेत लेखकों ने आकर्षित किया। ऐसी ही एक स्त्री जेफ़रसन की रखैल है, मगर सार्वजनिक रूप से जेफ़रसन ने उसे कभी स्वीकार नहीं करता है। उसे और बच्चों को पहचानने, उनके अस्तित्व से इंकार करता है। क्लोटेल जेफ़रसन की इसी स्त्री से उपन्न एक संतान है और उसी के निलामी के तख्ते पर खड़े होने का बड़ा मार्मिक चित्रण विलियम ब्राउन ने इस उपन्यास में किया है। आगे चल कर क्लोटेल अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करती है। लेकिन उसका अंत बड़ा दर्दनाक होता है। विलियम बताता है कि ये अश्वेत स्त्रियाँ भी कोई बड़ी आकांक्षा नहीं पालती थीं। अच्छे कपड़े और श्वेत मालिक की रखैल बन कर अपना जीवन सार्थक मान लेती थीं। मुलाटो लड़कियाँ और स्त्रियाँ नीग्रो पार्टियों और नृत्य कार्यक्रमों (बॉल्स) की जान होती थीं। गुलामों की बाकायदा विज्ञापन के साथ खरीद बिक्री होती थी। एक साल ऐसा ही एक विज्ञापन निकला। विज्ञापन में लिखा था कि नवम्बर 10 तारीख, सोमवार बारह बजे 38 गुलाम बिक्री के लिए वर्जीनिया राज्य की राजधानी में उपलब्ध होंगे। नीग्रो अच्छी हालत में है, उनमें से कई युवा हैं, कई मेकेनिक्स हैं, कई खेती के काम में निपुण हैं, हल में जुतने योग्य, दूध पिलाती स्त्रियाँ हैं। कुछ विशिष्ट गुणों वाली हैं। जो भी अपनी संपत्ति बढ़ाना चाहता है, शक्तिशाली और स्वस्थ नौकर चाहता है उसके लिए यह एक विशिष्ट अवसर है। खास गुणों वाली कई मुलाटो लड़कियाँ उनमें भी सर्वोत्तम गुणों वाली दो मुलाटो लड़कियाँ बिक्री के लिए वहाँ होंगी। कोई भी पुरुष या स्त्री इन गुलामों को एक सप्ताह के ट्रायल पर ले सकता है, जिसके लिए कोई मूल्य नहीं देना होगा। इन्हीं में करेर और उसकी दो बेटियाँ क्लोटेल और एल्थेसा भी थीं। इन्हीं के लिए सर्वोत्तम गुणों वाली लिखा गया था। करीब चालीस की उम्र वाली करेर एक बहुत अक्लमंद औरत थी। वह ग्रेव्स नामक गुलाम मालिक की सम्पत्ति थी और अपने मालिक से अनुमति ले कर अपनी युवावस्था में करीब बीस साल तक वह गुलाम के एक युवा मालिक की हाउसकीपर थी। बाद में उसने धोबन का काम किया। जिस युवा गुलाम मालिक के यहाँ वह जवानी में थी उसका नाम थॉमस जेफ़रसन था। जेफ़रसन से उसकी दो बेटियाँ हुई। सरकारी नियुक्ति के कारण जब जेफ़रसन वॉशिंगटन चला गया, बाद में राष्ट्रपति भी बन गया तो करेर पीछे छूट गई। और धोबन का काम करने लगी क्योंकि उसे बच्चियाँ पालने के साथ-साथ ग्रेव्स को किराया चुकाना होता था। जब उसका मालिक ग्रेव्स मरा तब क्लोटेल सोलह और एल्थेसा चौदह साल की थी। अमेरिका में अश्वेत काफ़ी जल्दी बड़े होते हैं उनकी कद-काठी भी विकसित होती है। ये दोनों लड़कियाँ भी काफ़ी स्वस्थ थीं। करेर शुरु से अपनी बेटियों को लेडी बनाने का ख्वाब देख रही थी अत: उसने उनसे कभी कोई काम नहीं करवाया था। चूंकि वे काम नहीं करती थी अत: करेर को उनके एवज का दाम भी चुकाना पड़ता था। खास धोबन होने के कारण उसकी धुलाई का रेट बहुत अधिक था। इतना सब करके करेर और उसकी बेटियाँ एशो-आराम का जीवन बिता रहीं थीं। वह पार्टियों और नृत्य के समय अपनी बेटियों की ओर लोगों का खास ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करती। मगर बकरे मी माँ कब तक खैर मनाती। इन पार्टियों और महफ़िलों को नीग्रो बॉल कहा जाता था मगर इनमें श्वेत लोगों की अच्छी खासी तादाद उपस्थित रहती थी। असल में इनमें मुलाटो और नीग्रो लड़कियाँ और श्वेत पुरुष ही हुआ करते थे। पुरुषों में व्यापारी और उनके क्लर्क रहते। ऐसी ही एक पार्टी में रिचमंड के एक धनी आदमी के बेटे होरासिओ ग्रीन से क्लोटेल सर्वप्रथम परिचित हुई। बाइस साल का यह नौजवान कॉलेज की शिक्षा समाप्त करके लौटा था और क्लोटेल शहर की काली-गोरी सर्वोत्तम सुंदरी थी। ग्रीन का क्लोतेल के प्रति आकर्षण किसी से छिपा न रहा। अपनी बेटी की जीत पर करेर फ़ूली नहीं समा रही थी। होरासिओ ग्रीन उनके घर बराबर आने लगा। उसने जल्द ही क्लोटेल को खरीदने का वायदा भी किया। करेर अपनी बेटी की स्वतंत्रता के स्वप्न देखने लगी। एक शाम युवा ग्रीन ने क्लोटेल के पास बैठ कर उसे गुलामों की बिक्री का विज्ञापन दिखाया, जाते-जाते कहा कि तुम बहुत जल्द स्वतंत्र और खुद मुख्तार होने जा रही हो। नीलामी वाले दिन खूब भीड़ जुटी। गुलाम पालने वाले, गुलाम व्यापारी और अन्य लोगों के साथ होरासियो ग्रीन भी अपनी चेकबुक के साथ वहाँ उपस्थित था। पहले कम मूल्य वाले गुलामों की नीलामी हुई। पति-पत्नी अलग-अलग लोगों द्वारा खरीद कर भिन्न दिशाओं में ढ़केल दिए गए। भाई-बहन जुदा हुए, माताओं ने अपने बच्चों को अंतिम बार देखा। सब बिलख रहे थे। फ़िर और ऊँचे दाम वाले गुलामों की नीलामी हुई तथा सबसे अंत में करेर और उसकी बेटियों को सामने लाया गया। नीलामी के पटरे पर सबसे पहले करेर को चढ़ाया गया। काँपती हुई करेर को एक व्यापारी ले चला। उसी व्यापारी ने क्लोटेल से कम सुंदर करेर की छोटी बेटी एल्थेसा को एक हजार डॉलर में खरीदा। सबसे अंत में क्लोतेल को नीलामी के मंच पर लाया गया। उस दिन की सबसे बड़ी बोली लगनी थी। उसे देखते ही भीड़ में उत्तेजना की लहर दौड़ गई। उसका रंग करीब-करीब गोरा था और सुंदरता ऐसी ही हर व्यापारी अपने मन में उस पर दाँव लगाने की इच्छा लिए हुए था। उसके काले, घुँघराले बाल सलीके से बँधे हुए थे। अपनी लंबी काया में वह सौंदर्य की प्रतिमा लग रही थी। नीलामी करने वाले ने कहा कि मिस क्लोटेल को अंत के लिए सुरक्षित रखा गया क्योंकि वह सबसे अधिक कीमती है। उसके स्वास्थ्य और सौंदर्य की लंबी-चौड़ी तारीफ़ की गई और पाँच सौ से बोली लगनी शुरु हुई। विलियम बेल्स ब्राउन ने अपने उपन्यास में इस नीलामी का बड़ा सटीक और मर्मांतक चित्रण किया है। जब उसके नैतिक गुणों का बखान हुआ तो बोली सात सौ डॉलर पर पहुँची। उसकी बुद्धिमता के लिए आठ सौ और उसकी ईसाइयत के लिए किसी ने नौ सौ की बोली लगाई। बढ़ती बोली बारह सौ डॉलर पर जा कर ठिठक गई। आँसू भरी आँखों से क्लोटेल कभी अपनी माँ-बहन को देखती कभी उस युवक की ओर देख रही थी, जिसके द्वारा वह खरीदे जाने की आशा कर रही थी। एक बेबस लड़की की भावनाओं से बेखबर भीड़ हँसने, बतियाने, मजाक करने, चुटकुले सुनाने, धूम्रपान करने, थूकने में मशगूल थी। फ़िर नीलामी करने वाले ने क्लोटेल के कौमार्य की प्रशंसा शुरु की। बताया कि लड़की सदा अपनी माँ की देखरेख में रही है और अभी तक अछूती है। बोली थोड़ा औअर आगे बढ़ी तथा पंद्रह सौ डॉलर पर आ कर एकदम ठहर गई। सोलह साल की एक लड़की की हड्डियाँ, माँस-पेशियाँ, रक्त-मज्जा पाँच सौ, उसका नैतिक चरित्र दो सौ, बुद्धि एक सौ, ईसाइयत तीन सौ और कौमार्य चार सौ डॉलर में नीलाम हो गया। लेखक कटाक्ष करते हुए कहता है कि यह हुआ एक ऐसे स्थान में जहाँ चर्च के लंबे निशान स्वर्ग की ओर तने हुए हैं, जहाँ के पादरी अपने प्रवचनों में कहते हैं कि गुलामी प्रथा ईश्वर प्रदत्त है। ऐसे अमानुषीय कृत्य को किन शब्दों में बताया जाए? यह वह अपराध है जो जागरुक और क्रिश्चियन लोगों द्वारा किया जाता, उनके लिए किया जाता है। सरकार अपनी शक्ति ऐसे कामों को रोकने के बजाय बढ़ावा देने में लगाती है, वह सरकार जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का दावा करती है। होरासिओ ग्रीन ने पंद्रह सौ डॉलर में क्लोटेल को खरीदा। उसने सबसे ऊँची बोली लगाई थी। यह उपन्यास बताता है कि इस तरह राष्ट्रपति थॉमस जेफ़रसन, स्वतंत्रता और समानता की घोषणा करने वाले जेफ़रसन की बेटियाँ नीलाम हुई। इस व्यंग्यात्मक-मार्मिक उपन्यास के रचनाकार विलियम वेल्स ब्राउन की मेसाच्युसेट्स के चेल्सिया में छः नवंबर 1884 को मृत्यु हुई। 000 इसे और विस्तार से वाणी प्रकाशन से आई पुस्तक ‘अफ़्रो-अमेरिकन साहितय: स्त्री स्वर’ में पढ़ा जा सकता है।

Thursday, March 5, 2020

गोजर

जून का महीना था। बाहर सूरज का गोला आकाश पर चढ़ा अगन बरसा रहा था। धरती तप रही थी। बारिश का दूर-दूर तक ठिकाना न था। कमरे के भीतर भी उमस भरी गर्मी और घुटन थी। कहीं चैन नहीं पड़ रहा था। कहीं आराम न था। बिस्तर जल रहा था। नीचे नंगे फ़र्श पर लेट कर भी छटपटाहट बरकरार थी। तभी छत की गर्मी से बिलबिलाता हुआ एक गोजर धरन के बीच से फ़र्श पर ठीक मेरी बगल में चू पड़ा। मैं सिहर कर सिमट गया। थप्प की आवाज सुनते ही उनकी नजर जमीन पर गिरे गोजर पर पड़ी। वे बड़ी फ़ुर्ती से उठे। लपक कर रसोईघर में गए। वहाँ से चिमटा उठा लाए। गोजर को चिमटे से पकड़ कर दरवाजा खोल कर छत पर गए। गोजर को धूप से जलती छत पर रख कर ईट से दबा दिया। वापस आ कर चुपचाप लेट गए। मानो कुछ हुआ ही न हो। मैं इस दृश्य को देख रहा था। ईट से दबा, गर्मी से छटपटाता गोजर सैंकड़ों पैरों के होते हुए भी मजबूर था। चल नहीं सकता था, बच नहीं सकता था। अपनी जान नहीं बचा सकता था। भाग नहीं सकता था। वह छत की जमीन पर असह्य तपन से छटपटा रहा था। मैं देख रहा था। मैं देख रहा था ईट से दबा हुआ वह गोजर तड़फ़-तड़फ़ कर मौत के करीब सरकता जा रहा था। आज यह कोई नहीं बात न थी। अक्सर गर्मियों में घर की छत तपने से धरन के बीच से गोजर टपकता था। और वे उसे चिमटे से पकड़ कर छत पर ले जा कर ईट से दबा देते, जहाँ पड़ा-पड़ा वह दम तोड़ देता। दिन हुआ तो ईट के बोझ और छत की आग से जल्द शांत हो जाता। रात हुई तो रात भर ईट से दबा रहता और सुबह होने पर सूरज के चढ़ने के साथ-साथ धीरे-धीरे ठंडा होता। कभी-कभी सई साँझ को टपकता, तब तो शाम, रात, सुबह ईट से दबा रहता, छटपटाता रहता, सुन्न पड़ता जाता और अगली दोपहर को ही पूरा मर पाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि गोजर काफ़ी तगड़ा होता और उन्हें पूरी सही-सलामत ईट न मिल पाती। अद्धे-पौने ईट से ही वे उसे दबा देते। सतह समतल न होने के कारण वह गोजर पर सटीक न बैठती और नजर चूकते ही थोड़ी देर में गोजर गायब हो जाता। मगर ऐसा कभी-कभार ही हो पाता। ज्यादातर उनका ही पलड़ा भारी रहता। इस सारी प्रक्रिया के दौरान मैं मूक भयभीत दर्शक बना रहता। न ही प्रतिरोध करता, न ही सहायक बनता। मैं चीखना चाहता था, रोकना चाहता था उन्हें, बचाना चाहता था गोजर को। उनके हाथ से चिमटा खींच कर फ़ेंक देना चाहता था। चिल्ला-चिल्ला कर कहना चाहता था उसे मत मारो। मत मारो। गोजर पर से ईट उठा कर उसे भगा देना चाहता था, उसे बचाना चाहता था। पर कुछ करता नहीं था, मुँह से बोल नहीं फ़ूटते थे। भय से भीतर-भीतर काँपता रहता था। मेरे सारे शरीर में सिहरन हो रही थी। वह छूटने के लिए छटपटा रहा था, पर छूट नहीं पा रहा था। वह तड़फ़-तड़फ़ कर मर रहा था। पर यह क्या? यह क्या होने लगा? वह गोजर कब ईट के नीचे से निकल कर मेरे शरीर पर आ गया। और मेरे शरीर में समाने लगा। अरे यह क्या? मैं ही गोजर में बदलने लग रहा हूँ। मुझे ही छत की गर्मी जला रही है। मैं कब और कैसे छत पर पहुँच गया? मेरे ऊपर इतनी बड़ी ईट कब और कैसे आ गई। किसने रख दी मेरे ऊपर यह इतनी भारी-भरकम ईट? मैं गर्म तवे पर पड़ा हूँ। हिलना चाहता हूँ मगर हिल नहीं पाता हूँ, हिल नहीं सकता हूँ। निकल भागने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। सब उपाय बेकार हैं। हाथ-पैर सब जकड़े हुए हैं। मैं पूरी तरह ईट के नीचे दबा हुआ हूँ। ईट भारी और भारी होती जा रही है। बड़ी और बड़ी होती जा रही है। उसके नीचे दबे हुए मेरा दम घुटता जा रहा है। साँस रुकी जा रही है। छटपटाना चाहता हूँ, पर छटपटा भी नहीं सकता हूँ। हिल भी नहीं पा रहा हूँ। बोझ बढ़ता जा रहा है। चिल्लाना चाहता हूँ मगर गले से आवाज नहीं निकल रही है। हलक गर्मी और प्यास के मारे सूखा जा रहा है। मगर पानी कहाँ है? चारो ओर तेज झुलसाती हुई, आँखों को चुँधियाती हुई तेज धूप है। असह्य गर्मी है। ऊपर से बरसती आग और नीचे से जलती छत के बीच ईट से दबा मैं मर रहा हूँ। जबान ऐंठ रही है। आँखें बाहर निकली पड़ रही हैं। हलक सूख रहा है। गला घुट रहा है। दम निकल रहा है। अरे! यह क्या सारे शरीर पर फ़फ़ोले उभरने लगे हैं। मानो चेचक निकल रही हो। सारा शरीर फ़फ़ोलों से भर गया है। फ़फ़ोले मवाद से भर गए हैं। पीब हिलने से हर फ़फ़ोले में सैंकड़ों सूइयाँ चुभ रही है, टीस हो रही है। उफ़! कितनी तकलीफ़, कितनी जलन हो रही है। शरीर से आग निकल रही है। आग के साथ-साथ शरीर से ये क्या निकल रहा है? अरे! मैं तो सच में गोजर बनता जा रहा हूँ। मेरे शरीर के दाएँ-बाएँ दोनों ओर सैंकड़ों पैर उगते आ रहे हैं। पैर लंबे और लंबे होते जा रहे हैं। पैर हिल रहे हैं मगर लय में नहीं, रिदम में नहीं। वे छटपटा रहे हैं, बेतरतीब छटपटा रहे हैं। पैरों की जकड़न मेरे शरीर पर बढ़ती जा रही है। मेरा शरीर अमीबा की तरह बँटता जा रहा है, हर हिस्सा एक और गोजर बन रहा है। चारो ओर बस गोजर-ही-गोजर हैं। अब तो हिलना-डुलना भी संभव नहीं है। पैर हिलाना चाहता हूँ पर एक भी पैर नहीं हिलता है। अब सिर्फ़ जकड़न है। छटपटाहट बेबसी में बदलती जा रही है। घुटन बढ़ रही है। लग रहा है कोई दोनों हाथों से मेरा गला दबा रहा है। मैं चीखना चाहता हूँ पर मुझ पर बोझ इतना है कि चीख नहीं निकलती है। मेरे गले से आवाज नहीं निकल रही है। चीख घों-घों बन कर रह गई है। हाथ-पाँव सब बेजान हो गए हैं। बस गले से घुटी-घुटी-सी आवाज निकल रही है। पत्नी ने झकझोर कर उठा दिया। पहले कुछ समझ में नहीं आया कि कहाँ हूँ, क्या हो रहा है। गला अभी भी दबा हुआ है। हलक सूखा है, साँस धौकनी-सी चल रही है। पूरा शरीर काँप रहा है। पूरा शरीर पसीने से नहाया हुआ है। “कितनी बार कहा है, सीने पर हाथ रख कर मत सोया करो।” पत्नी ने कहा और अँधेरे में टटोल कर ढक्कन हटा कर पानी का गिलास मेरे हाथ में थमा दिया। “लो पानी पीयो, लगता है कोई बुरा सपना देख रहे थे। गले से घों-घों की आवाज आ रही थी।” मैं अभी भी स्थिर नहीं हो पाया था। पानी पी कर मैंने गिलास बगल की मेज पर रख दिया। पत्नी अब तक लेट चुकी थी। मैं भी लेट गया। अभी भी मेरा दिमाग पूरी तरह काम नहीं कर रहा था। मेरे बालों में अँगुली फ़ेरती हुई पत्नी बोली, “करवट ले कर सो जाओ। दिन भर न जाने क्या-क्या उलटा-पुलटा सोचते रहते हो तभी बुरे सपने आते हैं।” पत्नी मेरी बेबसी, मेरी लाचारी, मेरा भय, मेरी सिहरन कभी पूरी तरह नहीं समझ पाएगी। मैं उसे समझा भी नहीं सकता हूँ। क्या हम किसी को अपनी पूरी बात कभी समझा पाते हैं? समझा सकते हैं? थोड़ी देर में पत्नी सो गई। खर्राटे भरने लगी। मगर मेरी आँखों से नींद कोसों दूर थी। मेरी आँखों में गोजर भरे हुए थे। मैं लेटे-लेटे सोचने लगा, शरीर पर ये फ़फ़ोले उगना, गोजर की तरह शरीर से सैंकड़ों पैर निकलना, ईट से दबे हुए जलती छत पर पड़े रहना, घुटना, तपन से छटपटाते हुए मौत की ओर धीरे-धीरे सरकना, क्या यह सब दिन भर की उलटी-सीधी बातें सोचने का नतीजा है? दिन में तो शायद इस भय, इस सिहरन, इस जकड़न से मैंने पीछा छुड़ा लिया है। मगर अभी भी बचपन में रोज-रोज की देखी वह क्रूरता, वह बेरहमी, वह छ्टपटाहट रात में मेरा पीछा करती है। उस क्रूरता के निशान मेरी आत्मा पर फ़फ़ोले बन कर पड़ गए हैं, जो रात को निकल आते हैं। रात को ईट से दबा, जलती-तपती छत पर मौत की ओर धीरे-धीरे सरकता गोजर मेरे सीने पर पुन: जिंदा हो जाता है। क्या इस जनम में अपने शरीर पर रेंगते इस गोजर से मुझे छुटकारा मिलेगा? अब तो मेरा सारा शरीर ही गोजर बनने लगा है। धीरे-धीरे मेरी भी आँख लग गई। चिमटे से पूँछ दबा गोजर छत की मुरेड़ से उलटा लटका था। मैं फ़िर बेबस था, सिहर रहा था। ००० (गोजर को काँतर भी कहते हैं) (35-40 साल पहले लिखी मेरी पहली कहानी)

Tuesday, February 18, 2020

जन्मदिन की शुभकामनाएँ

जन्मदिन की शुभकामनाएँ पिताजी ! 14 Feb 2020 2003 के नोबेल पुरस्कार विजेता जॉन मैक्सवेल कट्जी अपने नोबेल प्रीतिभोज के अवसर पर बताते हैं कि पुरस्कार मिलने पर एक दिन उनकी संगिनी डोरोथी ने अचानक कहा, यदि उनकी माँ जीवित होती तो उनको कितना गर्व होता! अफ़सोस वे यह देखने को जीवित नहीं हैं! और तुम्हारे पिता! उन्हें तुम पर कितना गर्व होता! कितना ठीक कह रही थीं उनकी संगिनी। आगे वे कहते हैं कि यदि हम अपनी माँ के लिए नहीं तो आखीर किसके लिए ऐसे काम करते हैं? वे उदाहरण देते हुए कहते हैं जब हम बचपन में कोई पुरस्कार जीतते हैं तो दौड़ कर अपनी माँ को दिखाते हैं, ‘देखो मैंने यह जीता है।’ हम अपने भीतर की प्रत्येक गहन संवेदना अपनों से साझा करना चाहते हैं। चाहे वह पुलक हो अथवा भय। मिट्टी खाता बालक अपनी माँ को भी उस अनोखे स्वाद से परिचित कराना चाहता है (सुभद्रा कुमारी चौहान की एक कविता) रोमांच से भरा बालक वीरबहूटी ला कर माँ को दिखाता है। दर्द तब तक कम नहीं होता है जब तक माँ चोट को फ़ूँक से उड़ा नहीं देती है। बड़े होने पर यह बालक हमारे अंदर कहीं दुबक जाता है लेकिन आह्लाद के समय, प्रसन्नता के समय यह उछल कर बाहर आ जाता है। हम अपनों के पास दौड़ कर पहुँच जाना चाहते हैं। यह सच है, हम बचपन से अपनी विजय के उल्लास में सबसे पहले अपने माता-पिता को शामिल करना चाहते हैं। पता नहीं क्यों मैं बचपन से अपनी सारी खुशिया माताजी से नहीं अपने पिताजी से बाँटना चाहती थी जबकि यह होता नहीं था। कई बार जब आप अपनी प्रसन्नता लिए जैसे किसी विषय में कक्षा में सर्वाधिक अंक पा कर आप उन्हें दिखाते हैं और वो कह दें किसी को इस विषय (उनके प्रिय विषय) में भी तो सर्वाधिक अंक मिले होंगे। और आपके सारे उत्साह पर पानी फ़िर जाए। और जब आप साहित्य पढ़ना चाहें तो वे आपको इंजीनियर बनाने पर तुले हों और घर में कई दिन तक अबोला रहे! ऐसे माता-पिता भी एक दिन आपकी सफ़लता पर गर्व करते हैं। आपके सामने भले न कहें मगर बाकी सबको आपके प्रकाशित लेख को दिखा कर बताते हों, देखिए यह मेरी बेटी का लिखा है। सबको शान से बताते हों कि उनकी बेटी कॉलेज में पढ़ाती है। आज वे कितने प्रसन्न होते जब उन्हें पता चलता कि उनकी बेटी की 19वीं पुस्तक प्रकाशित होने वाली है। भले ही मेरे सामने न कहते या शायद अब तक सामने भी कहने लगते। आज वे नहीं हैं, मगर मैं इस अवसर पर उन्हें स्मरण कर रही हूँ। आज उनका जन्मदिन है। जन्मदिन की शुभकामनाएँ पिताजी ! 000