Wednesday, August 15, 2018

फ़िल्मों में रवींद्रनाथ टैगोर

रवींद्रनाथ टैगोर का प्रभाव न केवल बंगाल, भारत और विश्व के साहित्य पर पड़ा वरन उनका प्रभाव साहित्य के अलावा अन्य कलाओं पर भी पड़ा। एक कला जिस पर उनका सबसे अधिक प्रभाव दृष्टिगोचार होता है वह है फ़िल्म। फ़िल्म कला और विज्ञान (तकनीकि) का संगम होती है। टैगोर के काम पर दुनिया भर में करीब १०० फ़िल्में बनी हैं। इनमें से अधिकाँश रील नष्ट हो चुकी हैं। अब नेशनल फ़िल्म डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन यह काम कर रहा है। रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास-कहानियों पर कई फ़िल्म निर्देशकों ने फ़िल्म बनाई हैं साथ ही रवींद्रनाथ टैगोर पर भी। हेमेन गुप्ता ने ‘काबुलीवाला’, सुधेंदु राय ने ‘समाप्ति’, तपन सिन्हा ने ‘अतिथि’, ज़ुल वेलानी तथा नागेश कुकुनूर ने ‘डाक घर’, अडुर्थी सुब्बा राव ने ‘मिलन’(‘नौका डूबी’ पर आधारित), सुमन मुखर्जी ने ‘चतुरंग’, गुलजार ने ‘लेकिन’ (‘क्षुधित पाषाण’ पर आधारित), कुमार साहनी ने ‘चार अध्याय’ बनाई। स्वयं टैगोर ने ‘नटिर पूजा’ पर एक मूक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी। सत्यजित राय और ऋतुपर्ण घोष ऐसे ही दो बड़े निर्देशक हैं जिन्होंने टैगोर के काम और उनके जीवन को अपने काम का हिस्सा बनाया है। सत्यजित राय तथा ऋतुपर्ण घोष दोनों फ़िल्म निर्देशकों ने रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन और कार्य पर अलग-अलग डॉक्यूमेंट्री बनाई। लेकिन दोनों एक-दूसरे से बहुत भिन्न डॉक्यूमेंट्री हैं। सत्यजित राय रवींद्रनाथ से प्रत्यक्ष मिले थे। उनके मन में कवि की बड़ी गहरी छवि थी। उन्होंने १९६१ में ‘रबींद्रनाथ टैगोर’ नाम से श्वेत-श्याम लघु डॉक्यूमेंट्री बनाई। इसमें उन्होंने रवि बाबू के जीवन और कार्य को लिया। राय रवि बाबू की आलोचना पक्ष को स्पर्श नहीं करते हैं। इस फ़िल्म की मूल पटकथा को सत्यजित राय के पुत्र संदीप राय ने अपनी किताब ‘ऑरिजनल इंग्लिश स्क्रिप्ट्स, सत्यजित राय’ में संकलित किया है। सत्यजित राय अपनी कई अन्य फ़िल्मों की भाँति इस फ़िल्म को भी अंतिम यात्रा से प्रारंभ करते हैं और तब टैगोर की वंशावलि, राजा राममोहन राय के धार्मिक, सामाजिक और शैक्षिक सुधार आंदोलन को प्रस्तुत करते हैं जबकि ऋतुपर्ण घोष अपनी डॉक्यूमेंट्री का आरंभ रवींद्रनाथ के बचपन से करते हैं। राय दिखाते हैं कि बचपन में टैगोर का पुकारू नाम रोबी था। फ़िल्म उनके स्कूली दिनों, उनके पिता की पत्रिका में उनकी प्रथम कविता प्रकाशन, लंदन में शिक्षा में नाकामयाबी से होती हुई उनके स्वप्न को शांतिनिकेतन में साकार होता हुआ दिखाती है। फ़िल्म में उनकी पत्नी, बच्चों की मृत्यु, उनका भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा होना को प्रदर्शित करती है। इस फ़िल्म में गीतांजलि, नोबेल पुरस्कार और ‘सर’ की उपाधि की बात भी चित्रित है, और नाइटहुड लौटाने की बात भी। फ़िल्म विश्व भारती के लिए धन जुटाने के लिए किए गए विश्व भ्रमण, उनकी पेंटिंग्स तथा उनके ७०वें जन्मदिन पर प्रकाशित किताब, ‘द गोल्डन बुक ऑफ़ टैगोर’ पर भी केंद्रित होती है। टैगोर के विषय में अल्बर्ट आइन्सटीन, जगदीशचंद्र बोस, रोमेन रोलांड, महात्मा गाँधी जैसे विश्व के महान लोगों के उद्गार भी समेटे गए हैं। फ़िल्म की समाप्ति टैगोर के विश्व संदेश और उनके अंतिम दिनों के साथ होती है। एक घंटे से कुछ समय में राय टैगोर के चमकते पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। राय की फ़िल्म क्लासिकल स्टाइल में आगे बढ़ती है और दर्शक कुरोसावा, जेम्स आइवरी और अन्य कई प्रसिद्ध लोगों को टैगोर का गुणगान करते सुनता है। फ़िल्म कवि की महानता का गान करती चलती है। फ़िल्म निर्देशक के नजरिए और जीवनानुभवों का निचोड़ होती है शायद इसीलिए भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के लिए बनाई ऋतुपर्ण घोष की टैगोर पर बनी डॉक्यूमेंट्री, ‘जीवन स्मृति’ टैगोर के जीवन में उनके अकेलेपन को उभारती है। २०१२ को अपने एक साक्षात्कार में घोष कहते हैं कि जो निकल कर आया वह था टैगोर का अकेलापन – बचपन से ले कर वृद्धावस्था तक। न तो उनके दु:ख का कोई भागीदार था और न ही उनकी सफ़लता को साझा करने वाला। यह तो एकाकी व्यक्ति की यात्रा है। वे यह भी कहते हैं कि कवि का जीवन इतना विपुल था, उसे पूरा पकड़ना संभव नहीं है। न तो राय पूरा पकड़ सके हैं न ही घोष। उनका हास्य, जीवन को हल्के ढ़ंग से लेने का उनका पक्ष तो छूट ही गया। घोष उन्हें गंभीर चिंतक और गुरु के रूप में प्रस्तुत करते हैं। रवींद्रनाथ टैगोर के ८० साल के विविधतापूर्ण जीवन से मात्र घंटे भर की सामग्री चुनना आसान काम नहीं है। यही चुनौती घोष के समक्ष भी आई जब वे २०१२ में ‘जीवन स्मृति’ बनाने चले। असल में फ़िल्म बनाने के पूर्व उनके मन में जो था वह सामग्री जुटाने के काल में काफ़ी कुछ परिवर्तित हो गया। बनने के काल में फ़िल्म खुद अपना आकार ग्रहण करने लगी और टैगोर एक एकाकी यात्री के रूप में उभर कर आए। राय और घोष दोनों पर आरोप है, इन लोगों ने टैगोर को संपूर्णता में प्रस्तुत नहीं किया। क्या यह संभव है? ‘जीवन स्मृति’ चुनी हुई स्मृतियाँ हैं। टैगोर ने स्वयं कभी अपने जीवन का तिथिवार आकलन प्रस्तुत नहीं किया है। हमारे यहाँ इसकी परम्परा भी नहीं है। पश्चिम में लोगों के जीवन के दिन-घंटों का हिसाब प्राप्त होता है। घोष कहते हैं यह फ़ोटोग्राफ़ी नहीं इम्प्रेशन है। स्वयं टैगोर ने जीवन को इम्प्रेशन के रूप में ग्रहण किया था। जब तक टैगोर ने ‘जीवन स्मृति’ (आत्मकथा नहीं) लिखी उनकी बेटियाँ, बेटा और पत्नी गुजर चुके थे। वे केवल कादम्बरी की मृत्यु के बारे में नहीं लिख रहे थे। घोष की डॉक्यूमेंट्री में बाल कलाकार शाश्वत चैटर्जी ने बालक रवींद्रनाथ की भूमिका की है। जब वे अपनी आयु के दूसरे दशक में हैं तब की भूमिका समदर्शी ने की है। वयस्क रवींद्रनाथ का अभिनय संजय नाग मे किया है। दोनों डॉक्यूमेंट्री ऑफ़ीसियल हैं अत: इनमें विवादपूर्ण बातों से बचा गया है। लेकिन ये प्रोपेगंडा फ़िल्म नहीं हैं। राय बहुत वस्तुनिष्ठता से फ़िल्म बनाते हैं तो घोष की फ़िल्म निजी श्रद्धांजलि बन कर उपस्थित होती है। राय स्वयं एक कलाकार हैं उनकी फ़िल्म में संगीत-कला और चाक्षुष सकून है और है नाटकीय प्रस्तुतियाँ। राय ने स्क्रिप्ट लिखी, निर्देशन किया साथ ही नरेटर भी वे स्वयं हैं। कवि के गीतों का फ़िल्म में समुचित उपयोग हुआ है। डॉक्यूमेंट्री का अंत टैगोर की आवाज में, ‘मोने रेखो...’ गीत से होता है। शेक्सपीयर की भाँति टैगोर भी अपने अंतिम दिनों में अपने रचे शांतिनिकेतन छोड़ कर अपने पैतृक घर जोरासांको – जहाँ उनका बचपन बीता था – वहाँ आ गए थे। ७ अगस्त १९४१ को कविगुरु ने इस दुनिया से प्रयाण किया। यह फ़िल्म न केवल टैगोर के जीवन को दिखाती है वरन इसमें आधुनिक भारत के इतिहास की झलक भी मिलती है। 000

१५ अगस्त से प्रवास

यह १५ अगस्त १९६१ का दिन था जब हम लोगों ने देवबंद छोड़ा था और जमशेदपुर के लिए चल पड़े थे। इसके पहले हम लोग उत्तर प्रदेश में ही अलग-अलग शहरों, कस्बों और गाँवों में रहते आए थे। जब पता चला हमें बिहार जाना है (उन दिनों जमशेदपुर बिहार का हिस्सा था।) तो दादी और बुआ का रो-रो कर बुरा हाल हो गया। इतनी दूर बिहार जाएँगे, पता नहीं फ़िर कब देखना होगा। दादी को लगा बस अब वे अपने लल्लू (पिताजी का पुकारू नाम) को कभी नहीं देख पाएगी। भैया (वे उसे यही संबोधित करती थीं) को देखना अब शायद ही हो। उन दिनों गोरखपुर या देवबंद से जमशेदपुर आना-जाना सरल न था। गाड़ी बदलनी पड़ती थी। छपरा हो कर आना पड़ता था। असल में पिताजी को दो जॉब ऑफ़र मिले थे एक बैंगलोर से, दूसरा जमशेदपुर से। बैंगलोर जाने का सवाल ही न था। न खाना-पीना ढ़ंग का, न बोली-बानी अपनी जैसी। और दूर भी तो कितना था। सो रो-धो कर बात जमशेदपुर पर ठहरी। पिताजी घर के बड़े लड़के, माँ के दुलारे, बहन (बहनों) के प्यारे। यू पी के सरकारी पायलेट वर्कशॉप में काम कर रहे थे। इसी सिलसिले में कभी अलीगढ़ में थे, कभी बकेवर में, तो कभी देवबंद में। जाहिर है पिताजी की शादी हो गई थी। देवबंद में माताजी-पिताजी के साथ हम पाँच भाई-बहन रह रहे थे जिसमें मुझसे छोटी बहन और एक भाई अक्सर बाबा-दादी के यहाँ गोरखपुर में रहते थे। हम लोगों की होली, दीवाली-दशहरा गोरखपुर में बीतता और जब-तब नानाजी के यहाँ बनारस में हम रहते। बनारस और गोरखपुर की बात फ़िर कभी आज तो देवबंद और जमशेदपुर की बात। सो यह १५ अगस्त का दिन था जब हम तमाम सामान के साथ लदे-फ़ंदे देवबंद के स्टेशन पर थे। असल में एक साल पहले. १५ अगस्त, १९६० को जमशेदपुर में रीजनल इंस्ट्यूट ऑफ़ टेक्नालॉजी (आर आई टी) खुला था। उसके संस्थापक प्रिंसीपल डॉ. आर पी वर्मा ने पिताजी को कहीं देखा था। सो उन्होंने पिताजी को वर्कशॉप इंचार्ज के रूप में आमंत्रित किया। और उन्हें वर्कशॉप फ़ोरमैन के पद पर काम दिया। उस समय मैं सोचती थी, पिताजी चार लोगों का काम करते हैं इसीलिए वे फ़ोरमैन कहलाते हैं। उस समय कॉलेज आदित्यपुर में था जहाँ आज आयडा का ऑफ़िस है वहाँ एक आम का बागीचा था, वहीं वर्कशॉप था। और वहीं पूरी कॉलोनी के घरों में ऑफ़िस, हॉस्टल, प्रोफ़ेसर और अन्य लोगों के रहने के घर थे। गर्ल्स हॉस्टल हमारे घर के बगल में था। चार-चार घर साथ थे। सड़क के पार जहाँ आज आकाशवाणी भवन है उसका दूर-दूर तक अता-पता न था, कभी उसकी बात उस समय सोची नहीं गई थी। खड़काई नदी पर पुल बना था मगर बह गया, खंभा कमजोर था और उस पर केवल पैदल चला जा सकता था, गाड़ियाँ नहीं चल सकती थीं। नदी के बीच से एक कच्चा पुल था, वह भी काम में आता था। लोग स्टेशन या बिष्टुपुर से गाड़ी से साउथ पार्क आते अपनी गाड़ी वहीं खड़ी करते और पैदल पुल पार कर आदित्यपुर आते। कुलियों, रेजाओं (यह शब्द हमने पहली बार सुना था, यह भी जाना कि यहाँ के मजदूर पुरुष कंधे से ऊपर सिर पर सामान नहीं उठाते हैं, यह काम केवल औरतें करती हैं।) के सिर पर हमारा सामान भी घर तक पहुँचा और हम पैदल। तो हम लोग देवबंद के छोटे-से स्टेशन पर खड़े थे, साथ में लोगों का एक हुजूम था। उस समय देवबंद एक छोटा-सा कस्बा था। सोता हुआ-सा, ऊँघता हुआ-सा। हम शाह बुल्लन की गली में रहते थे हमारे घर के पीछे बुल्ले शाह की मजार थी और घर की एक दीवार से सटा हुआ जैन मंदिर। सुबह हमें मंदिर की ओर देखना मना था क्योंकि कभी-कभी मंदिर की दीवार पर जैन साधु घूमते थे और अगर सुबह-सुबह उन्हें देख लो तो माना जाता था कि दिन बुरा गुजरेगा और उस दिन खाना तो नसीब नहीं ही होगा। गली में सड़क पार हमारी मकान मालकिन का घर था। वे अपने पटिदारों और इकलौते बेटे के साथ दुमंजिले मकान में रहती थीं। बिना पर्दे के घर से बाहर नहीं निकलती थी। पिताजी को वो अपना बड़ा बेटा मानती थी और हम उन्हें ताई जी कहा करते थे। सो, ताई जी भी हमें छोड़ने स्टेशन पर आई थीं। वर्कशॉप के छात्र, चपरासी, अन्य अधिकारी सब स्टेशन पर हम लोगों को विदा करने के लिए जमा थे। इसके पहले वर्कशॉप में पिताजी को विदाई दी जा चुकी थी जिसकी निशानी हमारे (मेरे, मेरी बहन और भाइयों) के गले में गेंदे की माला अभी भी पड़ी हुई थी। ट्रेन वहाँ बहुत कम देर खड़ी होती थी, मगर उस दिन चल नहीं पा रही थी। स्टेशन मास्टर भी हमारे साथ खड़े थे। अंत में गार्ड ने अनुरोध किया और पिताजी डिब्बे में चढ़े और ट्रेन चली। स्टेशन पर खड़े कई लोग रो रहे थे। मैं छठवीं कक्षा पास करके सातवीं में पढ़ रही थी। मुझे अपने संगी-साथियों (जिसमें कई लड़के थे, किसी लड़की की याद मुझे नहीं है) के छूटने का दु:ख था लेकिन नए शहर में जाने की खुशी और भय भी था। पिताजी से सुना था जमशेदपुर में रिक्शे वाले भी इंग्लिश बोलते हैं। बड़ी उत्सुकता थी जमशेदपुर पहुँचने की। रेल चली। कई स्टेशन पर हमसे मिलने के लिए रिश्तेदार और पिताजी के मित्र आते रहे। एक स्टेशन पर, शायद गाज़ियाबाद पर पिताजी के एक मित्र आए जो पीतल की एक बाल्टी में भर कर खीर लाए थे। बाल्टी सहित वो हमारे लिए विदाई की सौगात थी। कानपुर में बीच वाली बुआ सपरिवार मिलने आई। पिताजी ने हमारी फ़ुफ़ेरी बहन को हमारी छोटी मेज उपहार में दे दी। डिब्बे में क्या-क्या हमारे संग चल रहा था आज आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते हैं। एक बहुत बड़े टीन के बक्स में बरतन, रजाई-गद्दों के साथ-साथ पिताजी की रैले साइकिल भी थी, जो उसी ट्रेन के सामान वाले डिब्बे में रखा था। स्टेशन पर मिलने वाले हम बच्चों को नेग देते, माताजी-पिताजी उनके बच्चों को नेग देते। यह एक, दो अथवा पाँच रुपए होते, हैसियत और रिश्ते के अनुसार। उन दिनों एक-दो रुपए बहुत बड़ी रकम होती थी। माताजी ढ़ेर सारी पोश्ते की मीठी कचौड़ी बना कर लाई थीं जो मिलने वालों को दी जाती रही और उनके लाए खाने की सामग्री हमें प्राप्त होती रही। इस तरह दो या शायद तीन दिन की यात्रा के बाद हम जमशेदपुर पहुँचे। सारे रास्ते हमने घर का बना खाना खाया, बाहर का भोजन खाना बुरा माना जाता था। ट्रेन में सहयात्रियों से हम बच्चों को खूब प्रशंसा मिल रही थी और माताजी-पिताजी से लगातार घुड़कियाँ। ट्रेन के यू पी से निकलने के बाद लोग हमारे व्यवहार, हमारे अनुशासन की खूब प्रशंसा कर रहे थे और हम बच्चों की साफ़ हिन्दी, हमारे लहजे की खूब तारीफ़ हो रही थी। और इस तरह हम जमशेदपुर पहुँचे। जमशेदपुर में कल्चरल शॉक हमारा इंतजार कर रहा था। उस पर फ़िर कभी लिखूँगी। तब पिताजी ने कहाँ सोचा था कि यही बाकी का जीवन गुजारना होगा। सोचा था कि कुछ साल काम करेंगे फ़िर अपने यहाँ उत्तर प्रदेश लौट जाएँगे। मैंने भी कभी नहीं सोचा था, जमशेदपुर में रहूँगी। खैर तब यह भी कहाँ सोचा था कि केरल से जुड़ूँगी। हम पाँच भाई-बहन से नौ भाई-बहन हो गए (एक और बहन हो कर गुजर गई)। आर आई टी का नया कैम्पस बहुत पहले बन गया। हम वहाँ रहने नहीं गए, पुराने घर में ही रह गए। पिताजी-माताजी आज नहीं हैं। तीनों बुआ-चाचा कोई नहीं है। अब तो आर आई टी भी कहाँ है, वह तो एन आई टी बन चुका है। अब न तो वह यू पी रहा और न ही मैं वहाँ रह, बस-रच सकती हूँ। मैं ५७ साल से जमशेदपुर में हूँ। इसी शहर ने मुझे काम दिया, प्रेम दिया और इसी शहर ने मुझे पहचान दी है। अक्सर सोचती हूँ, आठ-नौ साल की दौड़ती, उछलती-कूदती अब वो लड़की कहाँ है! ०००