Wednesday, August 15, 2018

१५ अगस्त से प्रवास

यह १५ अगस्त १९६१ का दिन था जब हम लोगों ने देवबंद छोड़ा था और जमशेदपुर के लिए चल पड़े थे। इसके पहले हम लोग उत्तर प्रदेश में ही अलग-अलग शहरों, कस्बों और गाँवों में रहते आए थे। जब पता चला हमें बिहार जाना है (उन दिनों जमशेदपुर बिहार का हिस्सा था।) तो दादी और बुआ का रो-रो कर बुरा हाल हो गया। इतनी दूर बिहार जाएँगे, पता नहीं फ़िर कब देखना होगा। दादी को लगा बस अब वे अपने लल्लू (पिताजी का पुकारू नाम) को कभी नहीं देख पाएगी। भैया (वे उसे यही संबोधित करती थीं) को देखना अब शायद ही हो। उन दिनों गोरखपुर या देवबंद से जमशेदपुर आना-जाना सरल न था। गाड़ी बदलनी पड़ती थी। छपरा हो कर आना पड़ता था। असल में पिताजी को दो जॉब ऑफ़र मिले थे एक बैंगलोर से, दूसरा जमशेदपुर से। बैंगलोर जाने का सवाल ही न था। न खाना-पीना ढ़ंग का, न बोली-बानी अपनी जैसी। और दूर भी तो कितना था। सो रो-धो कर बात जमशेदपुर पर ठहरी। पिताजी घर के बड़े लड़के, माँ के दुलारे, बहन (बहनों) के प्यारे। यू पी के सरकारी पायलेट वर्कशॉप में काम कर रहे थे। इसी सिलसिले में कभी अलीगढ़ में थे, कभी बकेवर में, तो कभी देवबंद में। जाहिर है पिताजी की शादी हो गई थी। देवबंद में माताजी-पिताजी के साथ हम पाँच भाई-बहन रह रहे थे जिसमें मुझसे छोटी बहन और एक भाई अक्सर बाबा-दादी के यहाँ गोरखपुर में रहते थे। हम लोगों की होली, दीवाली-दशहरा गोरखपुर में बीतता और जब-तब नानाजी के यहाँ बनारस में हम रहते। बनारस और गोरखपुर की बात फ़िर कभी आज तो देवबंद और जमशेदपुर की बात। सो यह १५ अगस्त का दिन था जब हम तमाम सामान के साथ लदे-फ़ंदे देवबंद के स्टेशन पर थे। असल में एक साल पहले. १५ अगस्त, १९६० को जमशेदपुर में रीजनल इंस्ट्यूट ऑफ़ टेक्नालॉजी (आर आई टी) खुला था। उसके संस्थापक प्रिंसीपल डॉ. आर पी वर्मा ने पिताजी को कहीं देखा था। सो उन्होंने पिताजी को वर्कशॉप इंचार्ज के रूप में आमंत्रित किया। और उन्हें वर्कशॉप फ़ोरमैन के पद पर काम दिया। उस समय मैं सोचती थी, पिताजी चार लोगों का काम करते हैं इसीलिए वे फ़ोरमैन कहलाते हैं। उस समय कॉलेज आदित्यपुर में था जहाँ आज आयडा का ऑफ़िस है वहाँ एक आम का बागीचा था, वहीं वर्कशॉप था। और वहीं पूरी कॉलोनी के घरों में ऑफ़िस, हॉस्टल, प्रोफ़ेसर और अन्य लोगों के रहने के घर थे। गर्ल्स हॉस्टल हमारे घर के बगल में था। चार-चार घर साथ थे। सड़क के पार जहाँ आज आकाशवाणी भवन है उसका दूर-दूर तक अता-पता न था, कभी उसकी बात उस समय सोची नहीं गई थी। खड़काई नदी पर पुल बना था मगर बह गया, खंभा कमजोर था और उस पर केवल पैदल चला जा सकता था, गाड़ियाँ नहीं चल सकती थीं। नदी के बीच से एक कच्चा पुल था, वह भी काम में आता था। लोग स्टेशन या बिष्टुपुर से गाड़ी से साउथ पार्क आते अपनी गाड़ी वहीं खड़ी करते और पैदल पुल पार कर आदित्यपुर आते। कुलियों, रेजाओं (यह शब्द हमने पहली बार सुना था, यह भी जाना कि यहाँ के मजदूर पुरुष कंधे से ऊपर सिर पर सामान नहीं उठाते हैं, यह काम केवल औरतें करती हैं।) के सिर पर हमारा सामान भी घर तक पहुँचा और हम पैदल। तो हम लोग देवबंद के छोटे-से स्टेशन पर खड़े थे, साथ में लोगों का एक हुजूम था। उस समय देवबंद एक छोटा-सा कस्बा था। सोता हुआ-सा, ऊँघता हुआ-सा। हम शाह बुल्लन की गली में रहते थे हमारे घर के पीछे बुल्ले शाह की मजार थी और घर की एक दीवार से सटा हुआ जैन मंदिर। सुबह हमें मंदिर की ओर देखना मना था क्योंकि कभी-कभी मंदिर की दीवार पर जैन साधु घूमते थे और अगर सुबह-सुबह उन्हें देख लो तो माना जाता था कि दिन बुरा गुजरेगा और उस दिन खाना तो नसीब नहीं ही होगा। गली में सड़क पार हमारी मकान मालकिन का घर था। वे अपने पटिदारों और इकलौते बेटे के साथ दुमंजिले मकान में रहती थीं। बिना पर्दे के घर से बाहर नहीं निकलती थी। पिताजी को वो अपना बड़ा बेटा मानती थी और हम उन्हें ताई जी कहा करते थे। सो, ताई जी भी हमें छोड़ने स्टेशन पर आई थीं। वर्कशॉप के छात्र, चपरासी, अन्य अधिकारी सब स्टेशन पर हम लोगों को विदा करने के लिए जमा थे। इसके पहले वर्कशॉप में पिताजी को विदाई दी जा चुकी थी जिसकी निशानी हमारे (मेरे, मेरी बहन और भाइयों) के गले में गेंदे की माला अभी भी पड़ी हुई थी। ट्रेन वहाँ बहुत कम देर खड़ी होती थी, मगर उस दिन चल नहीं पा रही थी। स्टेशन मास्टर भी हमारे साथ खड़े थे। अंत में गार्ड ने अनुरोध किया और पिताजी डिब्बे में चढ़े और ट्रेन चली। स्टेशन पर खड़े कई लोग रो रहे थे। मैं छठवीं कक्षा पास करके सातवीं में पढ़ रही थी। मुझे अपने संगी-साथियों (जिसमें कई लड़के थे, किसी लड़की की याद मुझे नहीं है) के छूटने का दु:ख था लेकिन नए शहर में जाने की खुशी और भय भी था। पिताजी से सुना था जमशेदपुर में रिक्शे वाले भी इंग्लिश बोलते हैं। बड़ी उत्सुकता थी जमशेदपुर पहुँचने की। रेल चली। कई स्टेशन पर हमसे मिलने के लिए रिश्तेदार और पिताजी के मित्र आते रहे। एक स्टेशन पर, शायद गाज़ियाबाद पर पिताजी के एक मित्र आए जो पीतल की एक बाल्टी में भर कर खीर लाए थे। बाल्टी सहित वो हमारे लिए विदाई की सौगात थी। कानपुर में बीच वाली बुआ सपरिवार मिलने आई। पिताजी ने हमारी फ़ुफ़ेरी बहन को हमारी छोटी मेज उपहार में दे दी। डिब्बे में क्या-क्या हमारे संग चल रहा था आज आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते हैं। एक बहुत बड़े टीन के बक्स में बरतन, रजाई-गद्दों के साथ-साथ पिताजी की रैले साइकिल भी थी, जो उसी ट्रेन के सामान वाले डिब्बे में रखा था। स्टेशन पर मिलने वाले हम बच्चों को नेग देते, माताजी-पिताजी उनके बच्चों को नेग देते। यह एक, दो अथवा पाँच रुपए होते, हैसियत और रिश्ते के अनुसार। उन दिनों एक-दो रुपए बहुत बड़ी रकम होती थी। माताजी ढ़ेर सारी पोश्ते की मीठी कचौड़ी बना कर लाई थीं जो मिलने वालों को दी जाती रही और उनके लाए खाने की सामग्री हमें प्राप्त होती रही। इस तरह दो या शायद तीन दिन की यात्रा के बाद हम जमशेदपुर पहुँचे। सारे रास्ते हमने घर का बना खाना खाया, बाहर का भोजन खाना बुरा माना जाता था। ट्रेन में सहयात्रियों से हम बच्चों को खूब प्रशंसा मिल रही थी और माताजी-पिताजी से लगातार घुड़कियाँ। ट्रेन के यू पी से निकलने के बाद लोग हमारे व्यवहार, हमारे अनुशासन की खूब प्रशंसा कर रहे थे और हम बच्चों की साफ़ हिन्दी, हमारे लहजे की खूब तारीफ़ हो रही थी। और इस तरह हम जमशेदपुर पहुँचे। जमशेदपुर में कल्चरल शॉक हमारा इंतजार कर रहा था। उस पर फ़िर कभी लिखूँगी। तब पिताजी ने कहाँ सोचा था कि यही बाकी का जीवन गुजारना होगा। सोचा था कि कुछ साल काम करेंगे फ़िर अपने यहाँ उत्तर प्रदेश लौट जाएँगे। मैंने भी कभी नहीं सोचा था, जमशेदपुर में रहूँगी। खैर तब यह भी कहाँ सोचा था कि केरल से जुड़ूँगी। हम पाँच भाई-बहन से नौ भाई-बहन हो गए (एक और बहन हो कर गुजर गई)। आर आई टी का नया कैम्पस बहुत पहले बन गया। हम वहाँ रहने नहीं गए, पुराने घर में ही रह गए। पिताजी-माताजी आज नहीं हैं। तीनों बुआ-चाचा कोई नहीं है। अब तो आर आई टी भी कहाँ है, वह तो एन आई टी बन चुका है। अब न तो वह यू पी रहा और न ही मैं वहाँ रह, बस-रच सकती हूँ। मैं ५७ साल से जमशेदपुर में हूँ। इसी शहर ने मुझे काम दिया, प्रेम दिया और इसी शहर ने मुझे पहचान दी है। अक्सर सोचती हूँ, आठ-नौ साल की दौड़ती, उछलती-कूदती अब वो लड़की कहाँ है! ०००

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