Friday, November 10, 2017

बाजार की जुगत और साहित्यिक चोरी

‘‘यदि नौजवान अपने युवा काल में बगैर मेहनत किए पैसा कमाने का विचार बना ले तो यह सर्वाधिक दुर्भाग्य का पल होता है।” – बेंजामिन फ़्रैंकलिन बिना मेहनत के पैसा कमाने की ललक बड़े भाई को गोली मारने के लिए छोटे भाई को प्रेरित करती है। वह भी स्वयं उसके अनुसार केवल इसलिए क्योंकि बड़ा भाई उच्च पद पर था और छोटे भाई को अपने पद का फ़ायदा नहीं उठाने दे रहा था। भाई भी ऐसा जिसने पिता के मरने के बाद भाई-बहनों को पढ़ा-लिखा कर पैरों पर किया। कहाँ जा रहे हैं हम? यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि आज यह दुर्भाग्य का पल सब क्षेत्रों पर छाया हुआ है। आज नौजवान बिना तिनका हिलाए धनी बनने का न केवल स्वप्न देख रहा है, विचार कर रहा है बल्कि वह यही कर भी रहा है। चाहे इसके लिए उसे साम, दाम, दंड, भेद किसी भी नीति का सहारा लेना पड़े। यहाँ तक कि लेखन जैसा कर्म भी इससे अछूता नहीं रहा है। लेखन जिसे उच्च और पवित्र माना जाता है। आज का युवा यदि लेखन के क्षेत्र में जाना चाहता है तो वहाँ भी वह त्वरित गति से, बिना मेहनत किए रातों-रात धनी बनने के स्वप्न देखता है। और प्रकाशक इसे भुनाने पर तुला हुआ है। बल्कि यूँ कहें कि प्रकाशक जो बाजारवाद का एक नुमाइंदा है, उसे यह स्वप्न दिखाता है। बाजार उसे रातों-रात धनी बनने के स्वप्न बेचता है। बाजार उसे शॉर्टकट्स के गुर सिखाता है, बाजार अपनी जुगत लगा कर उसे महत्वाकांक्षी बनाता है। वरना १७ वर्ष की काव्या विश्वनाथन को दो उपन्यास लिखने के लिए छ: संख्या वाली रकम की बड़ी पेशगी के रूप में प्रकाशक की ओर से उसे न मिलती। शॉर्टकट्स से, बिना मेहनत किए लिखने और धन कमाने की हवस के पीछे मेधा का बाजारीकरण का हाथ है। लिखने की क्षमता, लिख कर स्वयं को अभिव्यक्त करने की इच्छा, अपनी मेधा को प्रकट करने की कामना या सत्यं, शिवं, सुंदरं को प्रदर्शित करना बहुत अच्छी बात है, बहुअत ऊँची बात है। लेकिन यह ऐसे लोगों का उद्देश्य नहीं होता है। ये लोग धन और नाम कमाने के चक्कर में लिखते हैं। पहले कवियों को राजाश्रय प्राप्त होता था। कवि रोजमर्रा की चिंताओं से मुक्त रह कर रचनाकर्म में रत रहता था। केरल के एक राज दरबार में भी ऐसे ही कवि पलते थे। केरल के राजा स्वयं भी विद्वान हुआ करते थे। एक दिन कवि दरबार लगा हुआ था, कवि अपनी-अपनी रचनाएँ सुना रहे थे और राजा स्वयं उन्हें उपहार दे रहा था। एक कवि ने अपनी रचना सुनाई। राजा ने मट्री के कान में कुछ कहा। मंत्री ने कवि को कुछ धन दिया और घोषणा की कि किसी अन्य की कविता जो आप उठा कर यहाँ तक लाए हैं, उस भार को उठाने की यह मजदूरी है। प्रश्न उठता है क्या काव्या जो स्वयं एक घनी-मानी परिवार से आती है, उसने मात्र धन प्राप्ति के लिए साहित्यिक चोरी की? कुछ लेखकों के लिए लेखन आर्थिक स्रोत का साधन हो सकता है, उनके लिए येन-केन-प्रकारेण लिखना और छपना मजबूरी है। न लिखें तो खाएँ कहाँ से। अपना और अपने परिवार का पेट कैसे पालें। उनके लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न हो सकता है। दूसरा कोई काम वे जानते नहीं हैं। और लिखने की प्रतिभा भी उनमें नहीं है तो ऐसे लोग दूसरों के लिखे की चोरी करते हैं। तब तो यह बात समझ में आती है। हालाँकि यह भी क्षमा योग्य नहीं है। और ऐसे लोगों की चोरी जब पकड़ी जाती है – जो देर-सबेर जाती ही है – तो उनकी बड़ी छीछालेदर होती है। पर काव्या ने ऐसा क्यों किया? इसमें शक नहीं कि काव्या विश्वनाथन बाजारवाद का शिकार हुई है। यह जीवन के प्रति कभी संतुष्ट न होने का परिणाम है। अमेरिकी जीवन शैली, जीवन दर्शन बाजार से प्रचालित, उपभोक्तावादी जीवन शैली है। अमेरिकी जीवन पद्धति भोग-विलास का दर्शन है। ‘यूज एंड थ्रो’ का दर्शन है। ऐसी जीवन शैली में व्यक्ति कभी भी संतोष का अनुभव नहीं करता है। क्योंकि संतोष किस चिड़िया का नाम है, कौन सी बला है, इसकी धारणा ऐसे लोगों को शायद नहीं होती है। एक दर्शन कहता है, ‘जब आवै संतोष धन सब धन धूलि समान’ और दूसरा दर्शन कहता है, ‘और, और, और। इस दर्शन में संतोष के लिए कोई स्थान नहीं होता है। जितना भी मिले कम है, सदा और, और के लिए भागते रहो। यह बाजार और विज्ञापन के द्वारा संचालित जीवन है। इसी धारणा ने शायद काव्या को साहित्यिक चोरी के लिए प्रेरित किया। नाम के साथ-साथ नामा भी मिलेगा। हर्र लगे न फ़िटकरी, रंग चोखा। ऐसा नहीं है कि काव्या के पास मेधा नहीं है, पर बिना मेहनत के यदि अर्थ प्राप्ति हो तो क्यों कष्ट किया जाए। यह जीवन जीने का एक भिन्न नजरिया और जीवन जीने की एक अलग प्रणाली है। बाजारवाद के सुरसा से फ़ैले मुँह में सब कुछ समाता चला जा रहा है, लेखन भी। बाजार कहता है कि व्यापारिक सफ़लता ही एकमात्र सफ़लता, एकमात्र सत्य है। इसकी चकाचौंध ने लेखकों की दृष्टि को भी प्रभावित किया है। वे व्यापारिक सफ़लता को सत्य मान बैठे हैं। साहित्य का उद्देश्य मान बैठे हैं। आचार्य मम्मट ने अपने ने अपने ‘काव्य प्रकाश’ में काव्य प्रयोजन के विषय में अखा है, ‘काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षयते, सद्य:परिनिर्वृतये कांतासम्मितयो[अदेशयुजे’। उनके अनुसार काव्य या साहित्य का मुख्य रूप से छ: प्रयोजन है, यश प्राप्ति, धन प्राप्ति, व्यवहार में निपुणता, अकल्याण से रक्षा, आत्मानंद की प्राप्ति तथा कांता सम्मित उपदेश देना। आचार्य मम्मट के अनुसार साहित्य का एक प्रयोजन अर्थ प्राप्ति है, एकमात्र प्रयोजन नहीं। लगता है आज अधिकाँश लेखकों का उद्देश्य व्यवहार में निपुणता, अकल्याण से रक्षा, आत्मानंद की प्राप्ति तथा काम्ता सम्मित उपदेश देना नहीं है। शायद आज अधिकाँश लेखकों का साहित्य से प्रयोजान यश और धन की प्राप्ति ही अर्ह गया है। खासतौर पर उन्नत देशों के लेखकों का। हमारे यहाँ यश मिल जाए यही बहुत है। हमारे यहाँ लेखन से अर्थ प्राप्ति की बात सोचना दुराशा मात्र है। एक समय लेखक की छवि थी साधारण रहन-सहान, सादा जीवन उच्च विचार। और आज बाजार की कृपा से उसकी छवि है चमक-दमक, फ़ाइव स्टार होटल में पुस्तकों का लोकार्पण, कॉकटेल पार्टियाँ, बँगला, कार, मोबाइल। पुस्तक पर सिग्नेचर कराना चाहने वालों की भीड़। इस सब का जादू सिर चढ़ कर बोलने लगता है। सोचने की बात है कि आज के बच्चे जो लेखक बनना चाहते हैं उनका रोल मॉडल कौन है? लेखक और प्रकाशक का रिश्ता सदा से बड़ा अजीब रहा है। दोनों एक-दूसरे की जरूरत हैं। परंतु प्रकाशक व्यापारी है। वह व्यापाअर की तिकड़मों से बाज नहीं आता है। हाल-फ़िलहाल भारत में गगन गिल और महाश्वेता देवी तथा उनके प्रकासह्कों के कटु रिश्तों की बात सब को मालूम है। प्रकाशक लेखक को बाजार मुहैय्या कराता है। मुश्किल यह है कि प्रकाशक बाजार से जुड़ा है और वही सारी शर्तें तय करने लगता है। लेखक अपनी पाण्डुलिपि लिए एक प्रकाशक से दूसरे प्रकाशक के पास भटकता रहता है। दर-दर की ठोकरें खाता है। प्रकाशक किसी लेखक को आकाश ताक ऊँचा उठा देता है और किसी दूसरे लेखक को धूल चटवाने की कोशिश करता है। इसका एक उदाहरण हैं नैथेनियल हॉथर्न। १८२५ से १८३७ के लंबे बारह सालों में तपस्या करके उन्होंने ‘फ़ेनशॉ’ नामक एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा पर इसे प्रकाशित करने के लिए उन्हें स्वयं पैसे खर्च करने पड़े। उन्होंने फ़िर ‘सेवेन टेल्स ऑफ़ माई नेटिव लैंड’ लिखा, पर प्रकाशक न मिला। हताशा इतनी बढ़ी कि सारी पांडुलिपि आग के हवाले कर दी। १८३९ में वे फ़िर ‘द जेंटल बॉय’, ‘रोजर मल्विंस बरियल’, ‘माई किंसमैन’, ‘मेजर मोलिनेक्स’ जैसी रचनाओं के प्रकाशन के लिए प्रयास कर रहे थे। लेकिन फ़िर सफ़लता न मिली। काफ़ी समय तक बेनामी रचनाएँ करते रहे। द स्टोरी टेलर’ उनकी कल्पना के चरम को दरशाती है पर यह भी संपादक की कैंची का शिकार होने के कारण अपने संपूर्ण रूप में प्रकाशित न हो सकी। बहुत बाद में जा कर उनके नाम के साथ ‘ट्वाइस टोल्ड टेल्स’ छपी। आज वे अपने उपन्यास ‘स्कारलेट लेटर’ के कारण विश्व विख्यात हैं। इसी तरह ‘जेन एंड दि आर्ट ऑफ़ मोटर्सायकिल मेंटेनेंस’, ‘जोनार्थन लीविंग्स्टन सीगल’ के लेखकों को न मालूम कितने प्रकाशकों के दरवाजे खटल्खटाने पड़े। दूर क्यों जाएँ जब तक भैरव प्रसाद गुप्त ‘नयी कहानियाँ’ के संपादक अर्हे उन्होंने रवींद्र कालिया की कोई कहानी न छापी। स्वयं रवींद्र कालिया के अनुसार, ‘पंजाब से उनके पास अपनी दो-तीन कहानियाँ भिजवाई थीं कहानी लौटाने में उतना वक्त लगता था, जितना डाक को आने-जाने में लगता था।’ ये ही कहानियाँ क्मलेश्वर के संपादलत्व में उसी पत्रिका में प्रकाशित हुई और रवींद्र कालिया कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। आज खासतौर पर इंग्लिश भाषा के प्रकाशक रातों-रात सितारे खड़े करते हैं। आज मास प्रोडक्शन का युग है। बाजार प्रत्येक वस्तु को प्रोडक्ट और पैकेजिंग की सूरत में प्रस्तुत करता है। बाजारवाद आज समाज और व्यक्ति के मानवीय मूल्यों को हजम कर रहा है। उसके सुरसा जैसे मुँह से रचनात्मक कार्य भी नहीं बचे हैं। प्रकाशक व्यापारी है वह वही माल बाजार में उतारता है जिसकी खपत संभव होती है। और आजकल प्रकाशकों के लिए विदेशों में बसे भारतीय ताग्ड़ा माल साबित हो रहे हैं। एक या दो पीढ़ी से विदेश में बसे भारतीय, जिनका एक पैर भारत में है और दूसरा में। यदि ऐसे लोग लेखक बनते हैं तो उनकी किताब की बिक्री की खूब संभावना बनती है। भारत में उनके लिए बड़ा बाजार है। और भारतीयों के विषय में जानने की उन्नत देशों में उत्सुकता के चलते ऐसे लेखकों की रचना वहाँ भी खूब बिकती है। जरूरत है तो बस ऐसे लेखन को प्रोडक्ट, एक उत्पाद्य की तरह विज्ञापित करने की। बाजार के हथकंडों को अपनाते हुए उसे बाजार में उतारने की। काव्या कि बाजार की शर्तों पर बाजार में उतारा गया है। काव्या का केस सरासर धोखाधड़ी का मामला है। धोखाधड़ी जिसके लिए सुदर्शन अपनी कहानी ‘हार की जीत’ में कहते हैं कि इसे लोगों से न कहना, वरना लोगों का विश्वास उठ जाएगा। कौन पाठक विश्वास करेगा लेखकों पर? अब काव्या ने माफ़ी माँग ली है और मेगन मेक्कॉफ़ेर्टी – जिसकी पुस्तक से काव्या ने ज्यादा-से-ज्यादा लिया है – ने अपने विशाल हृदय का परिचय देते हुए कहा है कि वे इस पर कोई कानूनी कार्यवाही करने के पक्ष में नहीं हैं। कानूनी दाँव-पेंच में पड़ कर वे क्यों अपना समय गँवाएँ। इस समय का सदुपयोग सृजनात्मक कार्य में किया जा सकता है। पाब्लो नेरुदा अपने नोबेल भाषण में कहते हैं, ‘न तो दोषारोपण और न ही स्वयं का बचाव कवि कर्म है।’ मेगन मैक्कॉफ़र्टी ने कहा, ‘मैं किसी भी तरीके की क्षतिपूर्ति नहीं चाहती हूँ।’ मेगन ने आगे कहा, ‘मैं पुन: काम पर लगना चाहती हूँ और आगे बढ़ना चाहती हूँ और आशा करती हूँ कि मिस विश्वनाथन भी यही करेगी।’ प्रकाशक का काव्या पर काफ़ी दबाव है, वह जो भी बयान दे रही है, प्रकाशकों की सलाह और सहमति से दे रही है। प्रारंभ में काव्या ने बड़ी मासूमियत से कहा कि वह होरीफ़ाइड है, जिन अनुच्छेदों को वह सच में अपने मान रही थी वे दूसरे उपन्यास के निकले। पर ऐसा था नहीं। कोई इस झूठ का ग्राहक न निकला, उल्टे पाठक रोज-रोज मेगन के और दूसरे उपन्यासों से काव्या के उपन्यास की समानता दिखाने लगे। मात्र सत्रह वर्ष की लड़की और ऐसी होशियारी! क्या यह बचपना था? आज उन्नीस साल की काव्या रोज-रोज अपने कथन बदल रही है। झूठ के पाँव नहीं होते हैं, अंत में उसे सच स्वीकारना पड़ा। टॉल्सटॉय ने ८ वर्ष के एक बालक के साहित्यकार बनने की इच्छा प्रकट कार्ने पार उसे लिखा, ‘आपकी साहित्यकार बनने की आकांक्षा का अर्थ हुआ कि आप सांसारिक प्रख्याति-सम्मान के प्रत्याशी हैं। यह केवल आकांक्षा का अहंकार है। मनुष्य की एक ही इच्छा होनी चाहिए कि वह दयार्द्र हो, किसी को आघात न पहुँचाए, किसी से घृणा न करे। वह किसी का दोषदर्शी न हो, वरन प्रत्येक व्यक्ति के प्रति ममताग्रही हो।’ प्रकाशकों ने काव्या को बड़े ऊँचे-ऊँचे रंगीन सपने दिखाए। क्यों न युवा अमेरिकन भारतीय रातों-रात धनी बनने की ललक पालें? मार्च में १९ वर्षीय काव्या विश्वनाथन की किताब ‘हाऊ ओपल मेहता गॉट किस्ड, गॉट वाइल्ड, एंड गॉट ए लाइफ़’ की १००,००० प्रतियों का पहला संस्करण लिटिल ब्राउन एंड कंपनी से प्रकाशित हुआ और फ़टाफ़ट वह बेस्ट सेलर बन गया। और तुरंत ‘ड्रीम वर्क्स’ ने उसके ऊपर फ़िल्म बनाने के अधिकार प्राप्त कर लिए। आज के फ़ास्ट युग में यह सब चलता है। बल्कि यूँ कहें कि यही सब चलता है। काव्या हॉवर्ड यूनिवर्सिटी की छात्रा है। पिता न्यूरो सर्जन हैं और माँ स्त्री-रोग विशेषज्ञ। अमेरिका में डॉक्टर होने के मतलब आपको ज्ञात हैं। काव्या को प्रकाशकों की ओर से दो किताबें लिखने के लिए एक बहुत बड़ी रकाम ५००,००० डॉलर अग्रिम मिली है। वह अवश्य ही ऊँचे-ऊँचे ख्वाब देख रही होगी। लेकिन एक ही महीने में उसका ताश का महल ढ़ह गया। हॉवर्ड के छात्रों की पत्रिका ‘हॉवर्ड क्रिमसन’ ने उसकी किताब और मेगन के दो उपन्यासों से सात अनुच्छेद एक जैसे खोज निकाले। मेगन किशोर-युवा साहित्य की प्रसिद्ध लेखिका हैं और ‘कॉस्मोपोलिटन’ पत्रिका की पूर्व संपादक हैं। हॉर्वर्ड क्रिमसन पत्रिका ने बताया कि काव्या विश्वनाथन की किताब में मेगन की पुस्तक से गजब की समानता है। काव्या ने इसके बचाव में अत्त्काल कहा कि उसने बचपन में मेगन की किताबें पढ़ी थीं, वह उसकी फ़ैन थी। शायद अनजाने में कुछ हिस्सा उसके जेहन में बैठा रह गया, वही आ गया होगा। खबर पढ़ कर लगा कि शायद बच्ची ने यहाँ-वहाँ एकाध अनुच्छेद या एकाध कथन का प्रयोग कर लिया होगा। हालाँकि इस चोरी का इल्जाम लगने के पहलीक साक्षात्कार में पूछे जाने पर कि व्ह किस लेखक से प्रभावित है? उसने कहा था, ‘मैंने जो पढ़ा है, उसमें से किसी ने भी मुझे प्रेरित नहीं किया है।’ शीघ्र पता चला कि उसे दो किताबों के लिए आधा मिलियन डॉलर का ठेका मिला है तो लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ है। फ़िर तो रोज-रोज उसके विषय में कभी कुछ तो कभी कुछ आने लगा। कहते हैं न एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं। कितने दिन ऐसा चलता। जब रोज-रोज अलग-अलग लेखकों से चोरी की बात खुलने लगी, जब पाठक अनुच्छेद-के-अनुच्छेद अगल-बगल रख कर दिखाने लगे तो अंत में काव्या ने स्वीकारा कि उसने चोरी की है। पहले दिन काव्या ने आश्चर्य जताया और यह कह कर माफ़ी माँग ली कि एक समय वह मेगन की जबरदस्त प्रशंसिका थी तथा कहा कि मुझे आश्चर्य है और मैं यह जान कर परेशान हूँ कि मेरी किताब तथा ‘स्लोपी फ़र्स्ट्स’ तथा ‘सैकेंड हेल्पिंग’ में समानता है। मुझे मालूम नहीं था कि मैंने मेगन के शब्दों को आत्मसात कर लिया है। यह पूरी तौर पर गैरइरादन और अचेतन रूप से हुआ है। और प्रकासह्कों के मार्फ़त उसने जनता, पाठक तथा लेखिका से माफ़ी माँग ली। पर बात यहीं समाप्त न हुई। कुछ ही दिनों में कुछ और पाठकों ने काव्या की किताब में कई अन्य लेखकों की पुस्तकों के अनुच्छेद ढ़ूँढ़ निकाले। इस बार नकल के उदाहरण मिले सोफ़ी किंसेला की किताब ‘कैन यू कीप अ सीक्रेट?’ तथा सल्मान रुश्दी के ‘हारोन एंड द सी ऑफ़ स्टोरीज’ एवं मेग्ग कैबोट की किताब ‘द प्रिंसेस डायरीज’ से। इंग्लिश प्रकाशन तंत्र हिन्दी प्रकाशन से बहुत भिन्न है। वहाँ बड़े व्यावसायिक ढ़ंग से कार्य होता है। अमेरिका में लेखन और प्रकाशन दोनों व्यवसाय है और वहाँ ये दोनों भारत से बहुत अलग है। वहाँ यह काम टीम वर्क की भाँति होता है। संपादकों की एक टीम होती है जो लेखक के संग मिल कर किताब तैयार करने का काम करती है। ये संपादक अपने-अपने विषय के दिग्गज होते हैं। मेरे कहने का तात्पर्य है कि क्या इनमें से किसी संपादक ने काव्या के कार्य में हुई चोरी को नहीं देखा? नहीं जाना? उन्होंने क्यों नहीं उसे सही दिशा निर्देश दिया? क्यों नहीं इस गलत काम को रोका? कहीं यह जाननूझ कर तो नहीं हुआ? आज प्रकाशन उद्योग बहुअत बड़ा व्यवसाय है, खासकर अमेरिका में। आज उपन्यास भी एक उत्पाद्य, एक पण्य वस्तु बन गया है। बाजार में यह भी एक माल है। जिसे आज के दौर में आक्रमक तरीके से ग्राहक (पाठक) को ठेला जा सकता है। यह मूलत: इंग्लिश में ही संभव है। क्योंइ यहीं पैसा है। हिन्दी, अन्य भारतीय भाषाओं या विदेशी भाषाओं में यह संभव नहीं है। विज्ञापन के युग में कुछ भी बेचा जा सकता है। पैकेजिंग महत्वपूर्ण है। कॉन्टेंट चाहे कुछ भी हो। पर जागो ग्राहक जागो का अभियान भी तेजी पर है। पाठक तो शुरु से ही जाग रहा है। पाठक एक लेखक का सबसे बड़ा न्यायधीश होता है। एक लेखक आलोचकों को धोखा दे सकता है लेकिन अपने पाठकों को नहीं। यदि कोई लेखक सोचता है कि वह पाठकों की आँख में धूल झोंक सकता है तो वह बहुत बड़ी भूल करता है। अपने पाँव में आप कुल्हाड़ी मारता है। जिन किताबों से काव्या ने अनुच्छेद उठाए थे उनके प्रकाशन के लिए माफ़ी माँगना ‘परेशान करने वाला और मक्कारी, घुन्नापन तथा कपट भरा है। क्योंकि अगले दिन चालीस अनुच्छेद को समान पाया गया। क्राउन प्रकाशन के स्टीव रोज ने इसे सीधे-सीधे साहित्यिक चोरी की संज्ञा दी। वे कानूनी कार्यवाही की बात पर विचार कर रहे हैं। अब तो काव्या के प्रकाशक, एजेंसी सबने चुप्पी साध ली है। वे न फ़ोन पर, न ई-मेल पर जवाब देते हैं। और न ही प्रश्नकर्ताओं से मिलने के लिए तैयार हैं। यूनानी मिथक में हाइड्रा नौ सिर वाला एक भयंकर सर्प है। जो अपनी विषैली फ़ुँफ़कार से सामने वाले को नष्ट कर डालता है। जब इसका एक सिर कुचला जाता है तो उसकी जगह दो सिर उग आते हैं। अंत में इसे जला कर नष्त किया जाता है। बाजारवाद से संचालित उपभोक्तावाद हाइड्रा हेडेड मॉन्सटर है। इसके मात्र नौ सिर नहीं हैं बल्कि यह हजारों सिर वाला राक्षस है। यह एक साथ कई दिशाओं में विष वमन करता है। बाजाररूपी इस हाइड्रा को कुचलना कफ़ी नहीं है, इसे जला कर राख करना होगा। अन्यथा यह अपनी विष भरी फ़ुँफ़कार से सब नष्ट कर डालेगा। इसके सिर सपने दिखाते हैं। लालच पैदा करते हैं। इतने लुभावने, इतने रंगीन सपने दिखाते हैं कि लोग अपनी नैतिकता भूल जाते हैं। इन सपनों को पाने के लिए वे कुछ भी कर गुजरते हैं। यह व्यक्ति की महत्वकांक्षा को उकसाता है। और फ़िर बिना ज्यादा मेहनत के उन्हें पाने के शॉर्टकट्स प्रदान करता है। इसी की गिरफ़्त में आ कर कॉलेज की नवयुवतियाँ कॉल गर्ल बन जाती हैं। फ़िल्म लाइन में कॉस्टिंग काउच एक आम बात हो गई है। असल में काव्या बाजारवाद और उपभोक्तावाद दोनों का शिकार हुई है। इसमें महत्वकांक्षा का भी हाथ है जैसा कि सल्मान रुश्दी ने कहा है, ‘काव्या विश्वनाथन अपनी महत्वकांक्षा का शिकार है।’ वे नहीं मानते कि यह संयोगवश या मासूमियात से हुआ है। क्योंकि अनुच्छेद बहुतेरे हैं और समानता। यह सच में मासूमियत में नहीं हुआ है। समानता उसे बड़ी मँहगी पड़ी। माफ़ी माँगने के अगले ही दिन से प्रतिक्रियाएँ आने लगीं। मेगन के एजेंट ने कहा, ‘यह स्वीकार करने योग्य नहीं है कि यह सब अचेतन रूप से बिना किसी बुरे इरादे के हुआ है।’ हँ, इसमें शक नहीं कि उसकी कम उम्र, उसकी मासूमियत, उसकी अनुभवहीनता को भुनाया गया है। आज वह अपनी महत्वाकांक्षा के गुंजलक में बुरी तरह फ़ँस गई है। आज यह अमेरिका में हुआ है। अमेरिका जो हमारे युवाओं का आदर्श है, रोल मॉडल है। जिअस्की तर्ज पर आज हमारे नौजवान अपनी जिंदगी जीना चाहते हैं। इसकी पूरी-पूरी गुंजाइश है कि आज नहीं तो कल यह हमारे यहाँ भी हो सकता है। क्या पता हो रहा हो या शुरुआत होने वाली हो। हमें इस पर समय रहते विचार करना होगा, अंकुश लगाना होगा। इसके पीछे के कारणों का विश्लेषण करना होगा। क्या यह सब इतना सरल और सीधा है? क्या यह सिर्फ़ युवा की नाम और धन कमाने की आकाश छूती माह्त्वाकांक्षा भर है? क्या उसके प्रकाशकों की इसमें कोई भूमिका नहीं है? क्या उनकी इसमें कोई जिम्मेदारी नहीं है? क्या बाजारवाद और उपभोक्ता संस्कृति का इसमें कोई अशयोग नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि युवा काव्या प्रकाशकों के अनावश्यक दबाव में आ गई? या संपादकों की बात न काट सकी? प्रकाशक जो बाजार की नब्ज जानने का दावा करते हैं। युवा और नए लेखकों पर संपादकों तथा प्रकाशकों का खासा दबाव रहता है, विशेष रूप से अमेरिका में ऐसा ही है। ये युवा लेखक के मेंटर बन जाते हैं। लेखक भी अनुभवहीनता के कारण उनकी बात मानने में अपनी भलाई मानता है। उनके पास बहुत कम विकल्प होते हैं। क्या काव्या के माता-पिता की इसमें कोई भूमिका है? क्या साफ़्लता के लिए उनका दबाव था? उनके परिवार में साइंस में सबको पुरस्कार मिलते रहे हैं। क्या इसको ले कर काव्या के मन में कोई कुठा है? कहीं वह नस्लवाद के शिकार तो नहीं हुई? क्योंकि साहित्यिक चोरी धड़ल्ले से होती है। फ़िर काव्या का केस ही क्यों इतना उछला? या उछाला गया। क्या यह सब सोची-समझी रणनीति के तहत हुआ है? पहले काव्या के प्रकाशक तरह-तरह के बयान दे रहे थे। और जब बात हाथ से बाहर निकलते लगी तो उन्होंने चुप्पी साध ली। प्रारंभ में काव्या के प्रकाशक का कहना था, ‘लगता है कि काव्या ने जो उधार लिया है वह उसके छात्र और लेखक होने के दबाव के कारण है।’ आज का छात्र अभिभावकों, स्कूल, साथियों सबके दबाव में रहता है। तनाव और दबाव आज के युवा के जीवन का हिस्सा है। छात्र होने के नाते इतनी बड़ी रकम ले कर सफ़ल उपन्यास लिखने का दबाव कुछ कम नहीं रहा होगा। वो स्वयं स्वीकारती है कि उपन्यास की नायिका की तरह उसके लिए भी अच्छे कॉलेज में प्रवेश एक बड़ी साम्स्या था। बल्कि उसकी अपनी कहानी ही नायिका के जीवन का कथानक बना है। हर हाल में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उपन्यास लिखते समय वह भयंकर मानसिक दबाव में थी। प्रकाशक उसे ‘१७वाँ स्ट्रीट प्रोडक्शन्स’ के लिए भी दोषी नहीं ठहरा रहे थे जिन्होंने कहानी विकसित करने में उसकी सहायता की। ‘१७वाँ स्ट्रीट प्रोडक्शन्स’ किशोरों को लेखन में सहायता प्रदान करने का कार्य करते हैं। यह एक फ़ैक्ट्री की तरह है। उनका कहना था, ‘किताब का प्रत्येक अच्छा या बुरा शब्द स्वयं उसके द्वारा लिखा गया है।’ प्रकाशक शुरु में कह रहे थे कि वर्तमान संस्करण बाजार से नहीं हटेगा। प्रारंभ में काव्या के प्रकाशक उसका बचाव करने का प्रयास कर रहे थे। पहले उन्होंने कहा कि वे शीघ्र ही अगले संस्करण में सुधार करेंगे पर जब बात आई वर्तमान संस्करण की तो उन्हें बाध्य हो कर नकल के कारण उसे बाजार से हटाना पड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने आगे के बयाना और किताब लिखने के शर्तनामे को भी खारिज कर दिया। प्रकाशक क्या समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें यह सब पता नहीं था। वे काव्या की तरह अनुभवहीन हैं। क्या वे इस तरह के बेबुनियाद बयान दे कर बच सकते हैं? रुश्दी को अफ़सोस है कि यह युवा लड़की प्रकाशान मशीन की जरूरतों द्वारा ढ़केली गई। इसमें शक नहीं कि अपनी महत्वाकांक्षा द्वारा, अपने कैरियर के प्रारंभ में काव्या इस जाल में फ़ँस गई। रुश्दी उम्मीद करते हैं कि वह इससे उबर आएगी। बाजारवाद और उपभोक्तावाद में मशीनों का बहुत बड़ा हाथ है। रुश्दी भी पर्काशन मशीन की ओर इंगित कर रहे हैं। रचना रचनाकार के अनुभव, उसके जीवनोद्देश्य, और उसके व्यक्तित्व की छाप लिए होती है। या यूँ कहें कि उसी की प्रतिलिपि होती है। खासकार पहली रचना लगभग लेखक की जीवनी ही होती है। काव्या के अनुसार ‘हाऊ ओपल मेहता गॉट किस्ड, गॉट वाइल्ड एंड गॉट ए लाइफ़’ उसकी अपनी कहानी है। ओपल अपनी कहानी में बताती है कि वह बहुत कड़ी मेहनत कर के हाई स्कूल में सब विषय में ‘ए’ लाती है लेकिन अपनी सामाजिक जेंदगी के प्रति ध्यान नहीं देती है और इसी बिना पर उसे हॉवर्ड में प्रवेश में दिक्कत आती है। उसके पास कोई उत्तर न था जब उससे प्रवेश परीक्षा के दौरान पूछा गया कि वह मजे के लिए क्या करती है? अमेरिका में मजे करना भी एक आवश्यक काम है। क्या पता सच में उपलब्धियों के लिए काव्या के भारतीय माता-पिता का उस पर दबाव रहा हो। काव्या विश्वनाथन के माता-पिता भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक हैं। बहुत से भारतीय अभिभावक अभी भी मानते हैं, ‘पढ़ोगे-लिखोगे होगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब’। चाहे वे विदेश में रह रहे हों। येन-केन-प्रकारेण उपलब्धि पाने की ख्वाहिश बाजारवाद का हिस्सा है और विदेशों की ओर दौड़ते भारतीय इसका शिकार हैं, इसमें शायद ही किसी को शंका हो। और तब ओपल का पिता प्रवेश परीक्षा के लिए एक योजना गढ़ता है, जिसका कूट संकेत है, ‘एच ओ डब्ल्यू जी ए एल।’ जिस तरह माता-पिता, स्कूल, साथी बच्चों पर एकेडेमिक्स में अच्छा रिजल्ट लाने के लिए दबाव बनाते हैं उसे देखते हुए याह आश्चर्य का विषय नहीं होना चाहिए। इसी का नतीजा है कि न चाहते हुए भी लाखों बच्चे आई ए एस, मेडिकल औअर इंजीनियरिंग की प्रवेश और प्रतियोगिताओं की परीक्षाओं में बैठते हैं और नाकामयाब रहने पर हताशा का शिकार होते हैं। कुछ अपनी जान ले बैठते हैं। आई आई टी तथा अन्य प्रतिशिष्ठित शिक्षा संस्थाओं में आए दिन आत्महत्याएँ होती हैं। चिकित्सा जैसा मानवीय पेशा बाजार के जाल में फ़ँस कर ऐसी गति को प्राप्त हो गया है कि इसकी प्रवेश परीक्षा के प्रश्नपत्र की खरीद-फ़रोख्त होती है। बीस लाख में प्रश्नपत्र खरीदने को अभ्यार्थी राजी हैं। बाजार ने अपने ऑक्टोपस जैसे हाथ-पैर सब दिशाओं में फ़ैला रखे हैं। स्वतंत्रता, समानता और भाईअचारा, विश्व नागरिकता की बात करने वाले अमेरिका में रंगभेद, नस्लभेद जैसी दोहरी नीतियाँ हैं, यह जग जाहिर है। यह भी एक सत्य है कि ११ सितंबर के बाद यह और बढ गया है। कुछ थोड़े से आतंअक्वादियों ने ११ सितंबर को जो किया उसका खामियाजा मुस्लिम और एशिया के अन्य मुल्कों के लोगों को भुगतना पड़ रहा है। वे अमेरिका में संदिग्धता के घेरे में हैं। ऐसे में क्या काव्या का दुष्कर्म उसके साथ-साथ अन्य युवा भारतीय लेखकों की छवि पर असर नहीं डालेगा? इस चोरी का असर अन्य युवा लेखकों की छवि पर पड़ने की पूरी-पूरी संभावना है। विकसिअत देशों के प्रकाशन जगत में एक नया चलन विकसित हुआ है। बुक पैकेजर्स प्रकाशक को प्लॉट, चरित्र, घटनाओं आदि का प्रस्ताव देते हैं और फ़िर उसके योग्य लेखक खोजते हैं। नए लेखकों के पास जाते हैं। इनके एजेंट होते हैं। ऐसी ही एक एजेंसी विलियम मोरिस ने काव्या को खोज निकाला। उन्होंने उसे ‘अलॉय एंटरप्राइजेज’ से मिलवाया। इंटरलिंकिंग का जमाना है, प्रकाशन संस्थान आपस में जुड़े हुए हैं। प्रकाशक, एजेंट, संपादक सबकी मिली भगत से काम होता है। ये सारे प्रकाशक, संपादक और पैकेजर सब एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं। जो एडीटर आज इसके लिए काम कर रहा होता है वह कल उसके लिए काम करेगा। इसीलिए क्लॉडिया गैबल का आभार काव्या और मेगन दोनों प्रकट करती हैं। सारी घटना एक और बात की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है, क्या पैकेजिंग और बाजार हाइप द्वारा कुछ भी बेचा जा सकता है? दुर्भाग्यवश उत्तर सकारात्मक लगता है। लुभावने विज्ञापन और आकर्षक पैकेट में रख कर क्या कुछ नहीं बेचा जा रहा है। यहाँ तक कि लेखन भी। काव्या ने भी एक ‘बुक पैकेजर’ ‘अलॉय इंटरप्राइजेज’ के सहयोग से अपने लेखन का श्रीगणेश किया। अलॉय नए लेखकों को लिखने में सहायता देता है बदले में रॉयल्टी का कुछ प्रतिशत लेता है। इस बुक पैकेजर ने काव्या से उसके जीवन के विषय में पता किया। काव्या के जीवन में उन्हें एक गर्मागरम कहानी के प्लॉट का मसाला मिला, मसलन भारतीय अमेरिकन १७ साल की लड़की, उसके पास ब्यॉयफ़्रेंड का न होना (यह भी अमेरिकन मापादंड है), अच्छे कॉलेज में दाखिले को ले कर तनाव आदि, आदि। बस उपन्यास को आत्मकथात्मक शैली या आत्मकथा को उपन्यास शैली में प्रस्तुत करना कौन-सी बड़ी बात थी। और उन लोगों ने उसे कहानी लिखने में सहायता दी। हालाँकि लिटिल ब्राउन ने अलॉय से ही सौदा किया। बाजार, विज्ञापन लुभावने सपने दिखाते हैं। युवा ग्लैमर और थ्रिल की दुनिया में जीना चाहता है। यह सदा से था, आज शायद प्रतिशत बढ़ गया है।कितना रोमांचक है, खासतौर पर १७-१८ वर्ष की लड़की के लिए यह सोचना, ‘यह विश्वास करना कितना कठिन है कि मैं एक बुक स्टोर में जाती हूँ और वहाँ वह प्रदर्शित किया गया है जो मैंने लिखा है।’ काव्या यह सब सोच कर उत्तेजित थी। ख्याति किसे नहीं अच्छी लगती है। वैसे भी यौवन, धान-सम्पत्ति, अविवेक और पर्भुत्व, इनमें से एक ही काफ़ी है किसी को नष्ट करने के लिए। बाजार प्रतिभा निखारने में शायद ही कोई भूमिका निभाता है। हाँ, प्रतिभा को अपनी चमक-दमक से अपनी ओर आकर्शित अवश्य करता है। अपने लाभ के लिए प्रतिभा का उपयोग या दुरुपयोग अवश्य करता है। उदाहरणस्वरूप हम देख सकते हैं कि जहाँ कोई अच्छा खिलाड़ी पैदा होता है तत्काल तमाम कंपनियाँ अपने उत्पाद्य के विज्ञापन के लिए उसे हायर कर लेती हैं। करोड़ों का लालच दे कर उसे अपना बँधुआ बना लेती हैं, फ़िर बेचारा एक उत्पाद्य बन कर रह जाता है। उसे प्रक्टिस करने, अप खेल को निखरने क सय ही नहीं मिलत है। जल्द ही उसकी प्रतिभा छीजने लगती है। खेल परिदृश्य से उसके हटते ही ये कंपनियाँ उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फ़ेंकते हैं। उनके लिए तब तक कोई और खिलाड़ी आ चुका होता है। एक बार दार्शनिक माइकेल डममेट से किसी ने पूछा कि आइडिया कहाँ से आता है? तो उनका उत्तर था, ‘दूसरों से’। आइडिया दूसरों से लेना एक बात है लेकिन दूसरों के काम की चोरी करना बिल्कुल अलग बात है। काव्या ने साहित्यिक चोरी की है। अनय चोरियों की भाँति साहित्यिक चोरी भी अपराध है। मलयाली लेखक पोंजिक्करा रफ़ी ने सोचा भला कौन मलयाली पाठक अर्वींद्रनाथ टैगोर को पढ़ने, जानने वाला है सो उन्होंने मजे में टैगोर को मलयालम में अपने नाम से काफ़ी दिन चलाए रखा। टैगोर के ‘काबुलीवाला’ को पंजाबी लेखक सुजान सिंअ ने ‘पठान की धी’ बना दिया और वे उसके लेखक बन बैठे। पार झूठ के पाँव नहीं होते हैं वह बहुत दूर तक नहीं चल सकता है। बात जल्दी ही खुल गई। पंजाबी की साहित्यिक पत्रिका ‘शंख’ ने शंख फ़ूँक दिया, इसने साहित्यिक चोरी पर विशेषांक निकाल दिया। इसी से सोचा-समझा जा सकता है कि साहित्यिक चोरी का बाजार कितना गरम है। इस पत्रिका के अनुसार आधुनिक पंजाबी के सारे-के-सारे लेखक इस घेरे में समाते हैं। चहे वे भाई वीर सिंह हों अथवा सम्मानित चर्चित पाश। पंजाबी कौम अपनी बहादुरी और अक्खड़पन के लिए प्रसिद्ध है। वे जो काम करते हैं ताल ठोंक कर करते हैं। ‘शंख’ का यह अंक इस बात की गवाही देता है कि पंजाबी लेखक साहित्यिक चोरी करता है और खुले आम करता है। पकड़े जाने पर उसे सब तरह से वाजिब सिद्ध करता है। एक पंजाबी लेखक का मानना है कि शिव कुमार बटालवी ने अपनी कविताएँ, अपने बिम्ब पेटेंट तो नहीं करवा रखे हैं। ये जनाब शब्दों को थोड़ा इधर-उधर करके शिव कुमार बटालवी की रचनाएँ अपने नाम से पेश करने का कमाल दिखाने में कुशल हैं। एक और पंजाबी कवि का कहना है, चोरी हमारी सांस की तरह, हमारे साथ जन्म लेती है। शायद ये सांस भी चोरी की लेते होंगे। अगार गुलजार को बंगाली पत्नी (राखी) के संग ‘हिल्सा’ भी पसंद आ गई तो कोई क्या करे। लेकिन एक और बंगालन (शर्मिला टैगोर) ने उसे पकड़ लिया और मूल कहानी की फ़ोटो कॉपी ‘लिटिल मैगज़ीन’ – जहाँ गुलजार की ‘हिल्सा’ प्रकाशित हुई थी – को भेज दी। बालवंत गार्गी के सब नाटकों पर जब विदेशी चोरी का दोष लगा तो उनका उत्तर बड़ा घटिया था, ‘दूध पीने वाला चाहता है कि उसे साफ़ और शक्तिशाली दूध पीने को मिले, उसका इस बात से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए कि गाय ने किस खेत से चरा है। या फ़िर चारे के लिए कहाँ-कहाँ मुँह चलाया है।’ यह तो चोरी और सीनाजोरी हुई। इस बात से जरूर सरोकार होना चाहिए कि रचना कहां से और कैसे आ रही है। डाकू रत्नाकर के घर वाले ऐसा कह सकते हैं कि हम तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं हैं पर पाठक ऐसा नहीं कहेगा। उसे ऐसा नहीं कहना चाहिए। लेखक रत्नाकर नहीं है क्योंकि जब रत्नाकार वाल्मीकि बन गए तब उन्होंने आदिकाव्य लिखा, साहित्यिक चोरी नहीं की। इस बात को हम मजाक में ऐसे कह सकते हैं क्योंकि यह आदिकाव्य था तो वे चोरी करते कहाँ से। हालाँ रत्नाकर और वाल्मीकि एक ही व्यक्ति थे इसका कोई सबूत नहीं है, यह तो केवल जनश्रुति है। चौर लेखन या साहित्यिक चोरी को इंग्लिश में ‘प्लैग्यारिज्म’ कहते हैं। यह शब्द लैटिन भाषा के ‘प्लैग्यारियस’ से निकला है, जिसका अर्थ है, जो किसी और का बच्चा या गुलाम अपहरण करता है। हमारे यहाँ चौर कर्म भी एक कला माना जाता है। एक अकुशल जिसे अभ्यस द्वारा सिद्ध करना पड़ता है। पाठकों को शूद्रक के ‘मृच्क्षकटिकं’ पर आधारित संवेदनशील फ़िल्म ‘उत्सव’ का चोर और उसके चोरी करने का तरीका स्मरण होगा। नकल में भी अकल की जरूरत पड़ती है। वह नकल ही क्या जो असल न लगे। चोरी एक आम बात है। लेकिन कुछ लोग चोरी के साथ सीनाजोरी करते हैं। फ़िलम निर्देशक दीपा मेहता उनमें से एक हैं। उनकी फ़िल्म ‘वाटर’ की कहानी बांग्ला के प्रसिद्ध रचनाकार सुनिल गंगोपाध्याय की ‘सेई समय’ है। इस उपन्यास को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। जिसे पेन्गुइन इंडिया के लिए अरुणा चक्रवर्ती ने इंग्लिश में अनुवादित किया है। शायद दीपा को छोड़ दें पर अनुवादक चोर का पीछा छोड़ने वाली नहीं है। इंद्राणी ऐकथ गिआल्टसेन, एक समय जिनकी प्रशंसा करते खुशवंत सिंह नहीं थकते थे, बाद में पता चला कि उनका ‘क्रेन्स मॉर्निंग’ पूरी तौर पर एलीबेथ गौज के ‘द रोजमेरी ट्री’ से बना है। इंद्राणी ऐकथ के पास प्रतिभा की कमी न थी। आज वे स्वयं नहीं हैं मगर उनकी बदनामी अभी भी है। आलोचक और नेशनल बुक ट्रस्ट के पूर्व चेयरमैन सुकुमार एजीकोड के अनुसार, ‘साहित्यिक कार्य की गुणवत्ता का निर्धारण लोगों को करना चाहिए, कोर्ट को नहीं।’ वैसे एजीकोड पर दूसरों ने और उन्होंने दूसरों पर चोरी का आरोपण किया है। वे कहते हैं, ‘मैं किसी को कभी कोर्ट नहीं ले गया क्योंकि मुझे मालूम है कि मेरा काम समय की परीक्षा में खरा उतरेगा।’ लेखक पॉल ज़करिया पर भी १९वीं सदी के फ़्रांसिसी लेखक एनाटोल फ़्रांस की कहानी चोरी करने ई बात एक युवा लेखक ने कही है। चोरी का खुलासा होने पर वी नारायण जैसे प्रसिद्ध व्यक्ति को अपने संपादकीय कार्य से हाथ धोना पड़ा। अरुण शौरी ने बहुत से चोर इतिहासकारों का भंडाफ़ोड़ किया है। कोई उनकी बात काटने या सफ़ाई देने आगे नहीं आ रहा है, क्योंकि सबको मालूम है कि शौरी अपना काम पक्का करते हैं। अगर उन्होंने चोरी की बात कही है तो उनके पास पक्के सबूत भी होंगे। अब साबित हो चुका है कि वाल्दीमिर नाबोकोव की ‘ललीता’ १९१६ में इसी नाम की एक जर्मन लेखक की कृति की चोरी है। उपन्यासकार बारबरा टेलर ने सहारा टीवी के खिलाफ़ केस दायर किया कि उनके उप[अन्यास ‘ए मिरेकल ऑफ़ डेस्टनी’ की नकल पर ‘करीश्मा’ सीरियल बनाया गया, बिना लेखक की जानकारी के। शायद कोप्र्ट के बाहर कुछ ले-दे कर मामला रफ़ा-दफ़ा हुआ। लेकिन यह खतार्नाक है, चोरी और कुछ ले-दे कर रफ़ा-दफ़ा करना, दोनों। विल्सन मिंजर व्यंग्य करते हुए कहते हैं, ‘यदि आप एक लेखक से चोरी करते हैं तो यह चौर लेखन है लेकिन यदि आप कई लोगों से चोरी करते हैं तो यह शोध है।’ मगर शोध में आप जिन लोगों के कार्य का उपयोग करते हैं आप उनका नाम देते हैं, उनका आभार प्रकट करते हैं। अत: इसे चोरी की संज्ञा देना उचित नहीं है। टी एस इलियट का कहना है, ‘बचकाने कच्चे कवि नकल करते हैं, महान कवि चोरी करते हैं।’ इसीलिए उन्हें भारतीय दर्शन से चोरी करने में कोई परहेज नहीं है। कई बार साहित्यिक चोरी का इल्जाम लग जाता है, खूब हो-हल्ला होता है। बाद में सब बेबुनियाद साबित होता है। जैसा कि मलयालम के प्रसिद्ध लेखक, फ़िल्म निर्माता और ज्ञानपीठ पुरस्कृत एम टी वासुदेवन नायर के साथ हुआ। उनके ही एक दोस्त और सहकर्मी ने उनकी ही किसी हल्के-फ़ुल्के क्षण में कही बात को ले कर दावा ठोंक दिया। एम टी (वे इसी नाम से जाने जाते हैं) ने कभी अपने दोस्त केरल के प्रसिद्ध कलाकार तथा आलोचक एम वी देवन से कहा कि यदि कोई ‘न्यूयॉर्कर’ और ‘परिसन रिव्यू’ जैसे विदेशी प्रकाशन से चोरी करता है तो किसी को क्या पता चलेगा। कुछ दिन पहले एम टी पर एक प्रोफ़ेसर ने दोषारोपण किया कि उनका विख्यात उपन्यास ‘मंजु’ (इंग्लिश में ‘मिस्ट’) सीधे-सीधे हिन्दी के निर्मल वर्मा के ‘परिन्दे’ की नकल है। दोनों किताबें नैनीताल की पृष्ठभूमि पर हैं। एम टी का कहना था कि उनके पास इस बात का कोई सुराग नहीं है क्योंकि उन्होंने वर्मा के उपन्यास को कभी पढ़ा ही नहीं। बाद में निर्मल वर्मा ने स्वयं एम टी का बचाव किया क्योंकि ‘परिंदे’ का इंग्लिश अनुवाद १९६४ में ‘मंजु’ लिखे जाने के बहुत बाद में आया। वर्मा को नहीं लगता कि एम टी ने हिन्दी में इसे पढ़ा होगा। डैन ब्राउन के ‘द विंची कोड’ के संग यही हल्ला-गुल्ला हुआ। बाद में कोर्ट से इसे बरी कर दिया गया। यह माइकेल बैगेंट, रिचर्ड लीग तथा हेनरी लिंकन, लेखक त्रयी के ‘द होली ब्लड एंड द होली ग्रेल’ से प्रेरित है जिसे लेखक ने पहले ही स्वीकार किया हुआ है। अपने पूर्ववती रचनाकारों से प्रभावित हो कर लिखना एक बात अहि और चोरी करना बिल्कुल दूसरी बात है। दोनों में बुनियादी फ़र्क है। रोज-रोज घोटालों की बात सुन-सुन कर लोग इम्यून हो गए हैं। आज बड़े-से-बड़ा घोटाला लोगों को चौंकाता नहीं है। वह अब सनसनीखेज खबर नहीं बनता है। हॉलीवुड की फ़िल्मों की फ़्रेम-दर-फ़्रेम चोरी कर बॉलीवुड में फ़िल्म बननी आम बात है। गीत-संगीत की चोरी भी बड़ी सामान्य बात हो गई है। इसे लोगों ने स्वीकार लिया है। कोई इसकी चर्चा भी नहीं करता है। पर अभी भी साहित्यिक चोरी लोगों के गले नहीं उतरती है। लेखक को समाज बहुत ऊँची दृष्टि से देखता है। समाज की उससे बहुत अपेक्षाएँ हैं। अत: जब लेखक बाजार या किसी अन्य दबाव में आ कार चोरी करता है तो पाठक को यह सरासर अन्याय लगता है। उसे लगता है कि उसके साथ धोखाधड़ी हुई है, उसे चीट किया गया है। आज काव्या की किताब बाजार से उठा ली गई है। उसका लेखकीय जीवन समाप्त हो गया है। लड़की में जरूर प्रतिभा रही होगी पर प्रतिभा का ऐसा दुरुपयोग! गलती किससे नहीं होती है? सब भूल करते हैं। बचपन और जवानी में भूल होना स्वाभाविक है। एक भूल को माफ़ किया जाना चाहिए। सुधार का मौका दिया जाना चाहिए। काव्या विश्वनाथन अभी बहुत कम उम्र की है। ऐसी युवा जिसमें प्रतिभा है। काव्या की नादानी को माफ़ किया जा सकता है बशर्ते वह अपनी साहित्यिक प्रतिभा का प्रदर्शन जारी रखे। प्रकाशकों के चढ़ाने से चने के झाड़ पर चढ़ने से इंकार करे। अपनी प्रतिभा को बाजारवाद की भेंट चढ़ने से बचे। यदि वह इसे अपनी भूल मानते हुए आगे अपना साहित्यिक जीवन जारी रखती है तो उसे कठिनाई आएगी अवश्य पर उसे ऐसा करने से कोई रोक नहीं सकता है। उसे अपना लेखन जारी रखना चाहिए। अगर उसके पास साहित्यिक गुणवत्ता होगी तो पाठक उसे अवश्य स्वीकारेगा। अत: उसे सल्मान रुश्दी, मेगन जैसे अपने शुभचिंतकों की बात मान कर, बाकी सब भूल कर निरंतर लिखना चाहिए। हो सकता है सारे मामले से प्राप्त अनुभव ही उसके अगले लेखन का आधार बने। लेखक किसी भी अनुभव को साहित्यिक कृति में ढ़ाल सकता है। यदि उसके पास क्षमता है तो उसे चोरी करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। काव्या विश्वनाथन को कम-से-कम अब अवश्य अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि साहित्यकार का दायित्व लोगों को बाजारवाद के प्रति सचेत करना है, स्वयं उसका शिकार होना नहीं। ०००